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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ८५ "अपि वासभूतो योऽनुपचरिताख्यो नयः स भवति यथा क्रोधाद्या जीवस्य हि विविचिताश्चेद वृद्धिभावः " ५४६ पंचा० अर्थात -अबुद्धि पूर्वक होनेवाले क्रोधादिक भावों में जीवके भावों की विक्षा करना यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय कहलाता है । भावार्थ - दूसरे द्रव्य के गुण दूसरे द्रव्य में विवक्षित किये जांय इसी को अद्भूत व्यवहार नय कहते हैं । क्राधादि भाव यद्यपि जीव के ही वैभाविक भाव हैं तथापि वह भाव कम के सम्बन्ध से होते हैं इसलिये यह भाव जीव के नहीं है परनिमित्त से उत्पन्न है अतः उनको जॉब के भाव कहना जानना असद्भूत नय है । कोधादि भाव दो तरह के होते हैं - एक बुद्धिपूर्वक, एक अबुद्धि पूर्वके । बुद्धि पूर्वक भाव स्थूल रूप से उदय में आरहे हो जिससे हम क्रोध कर रहे हैं वह बुद्धि पूर्वक क्रोधादि भाव हैं। तथा क्रोधादि भाव सूक्ष्मता से उदय में आर है हों जिसके विषय में हम यह नहीं कह सकते कि क्रोधादि भाव हैं ऐसे सूक्ष्म अप्रगट रूप कोधादि भावों को अबुद्धि पूर्वक कोचादि भाव कहते हैं उनको जीवके विवक्षित करना अनुपचारित असद्भूत व्यवहार नय है। यहां पर वैभाविक भावों को-पर भावों को जीव का कहना इतना श्रंश तो श्रसद्भूत का है । गुणगुणी का विकल्प व्यवहार का अश है श्रबुद्धिपूर्वक कोधादिको कहना इतना अंश अनुपचरित का है। इस नय की प्रवृत्ति का कारण"कारणमिह यस्य सतो या शक्तिः स्याद्विभावमयी । उपयोगदशाविशिष्टा या शक्तिः तदाप्यनन्यमयी" ५४७ पं० अर्थ-जिस पदार्थ की जो शक्ति वैभाविक भावमय हो रही है और उपयोग दशा यानी कार्य कारणी विशिष्ट है। तो भी वह For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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