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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा नैवं यतोस्त्यनेको नैकः प्रथमोप्यनन्तधर्मत्वात न तथैति लक्षणत्वादस्त्येको निश्चयो हि नानेकः || अर्थात- शंकाकार की यह शंका थी कि जिस प्रकार अनेक अंश सहित होनेसे व्यवहार नय अनेक है। उसी प्रकार व्यवहार नयके समान निश्चय नय भी अनेक होना चाहिये क्योंकि व्यव हार नय द्वारा प्रतिपादित द्रव्यके अंशोंका यह निषेध करता है For Private And Personal Use Only हेल अर्थात् आत्मा सत् रूप है, चैतन्य रूप है, दर्शन ज्ञान चारित्र रूप है इत्यादि अनन्त गुणोंका अखंडपिण्ड एक आत्मा उस मैं व्यवहार नय द्वारा भेद किया जाता है उसका निश्चय नय निषेध करता है कि श्रात्मा सत् रूप भी नहीं है. चैतन्य रूप भी नहीं है दर्शन ज्ञान चारित्र रूप भी नहीं है । इत्यादि व्यवहारनयके अनेक विकल्पका निषेध करने वाला निश्चय नय भी व्यवहार जबकी तरह अनेक होना चाहिये अर्थात् व्यवहार नय द्वारा गुण गुणी में जितना भेदरूप विकल्प होता है उतना उन विकल्पोंका निषेध निश्चय नय द्वारा किया जाता है इसलिये व्यवहार नयके अनेक विकल्पों का निषेध करनेसे निश्चय नय भी नेक है ऐसा मानना चाहिये । किन्तु आचार्य कहते हैं कि व्यवहार नय तो वस्तु में रहनेवाले अनन्त धर्मका विधिरूपसे प्रतिपादन करने से वह तो अनेक ही है एक नहीं है । परन्तु निश्चय नय एक ही है क्योंकि उसका लक्षण 'न तथा' है । अर्थात् व्यवहार द्वारा जो कुछ कहा है उसका निषेध करने मात्र ही निश्चय नयका एक कार्य है। निश्चय नय क्यों एक है. इस विषय में दृष्टान्त द्वारा आचार्य स्पष्ट करते हैं I दृष्टिः कनकत्वं ताम्रोपाधेर्निवृत्तितो यादृक् । अपर' तदपरमिह वा रुक्मोपाधेर्निवृत्तितस्तादृक् ६५८ पंचा०
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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