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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० जैन तत्त्व मीमांसा की डारि एक में अनेक खोजै सो सुबुद्धि खोजि जीवै वादि मर सांची कहावति है। एक में अनेक है अनेक ही में एक है सो एक न अनेक कछु कह्या न परत है । करता अकरता है भोगता अभोगता है उपजे न उपजत मरे न मरत है। बोलत विचारत न बोले न विचारे कछू भेखको न भाजन पै भेख सो धरत है। ऐसे प्रभु चेतन अचेतनकी संगतीसों उलट पलट नटवाजी सी करत है। ___इसलिये श्राचार्य कहते हैं किकेई कहे जीव क्षणभंगुर केई कहे कर्मकरतार । केई कर्मरहित नित जंपहि नय अनन्त नाना परकार । जे एकान्त गहे ते मूख पंडित अनेकान्त पखधार । जैसे-भिन्न मुकतागण गुणसों, गहत कहावै हार ।। सर्वविशुद्धिअधिकार इस उपरोक्त कथनसे यह भलीभांति समभ में आजाता है कि स्याद्वादसे ही वस्तुस्वरूपकी सिद्धि होती है ! एकान्तबादसे नह क्योंकि पदार्थ अनन्तगुणात्मक है उन अनन्तगुणोंका बोध करा. नेवाली नयभी अनंत है वह मूल दोभेदोंमें बंटी हुई है ! एक द्रव्यार्थिक और दूसरो पर्यायार्थिक, इमीका नाम निश्चय और व्यवहार भी है अर्थात् द्रव्यार्थिक कहो या निश्चय कहो । पर्यायाधिक कहो या व्यवहार कहो । एकही बात है । निश्चयनय तो एक ही है वह अनेक नहीं है। इसका कारण यह है कि वा द्रव्यको अखंड अभेदरूपसे ग्रहण करता है । वह पदार्थमें भेद का उत्पादक नहीं है भेदकं विना अनेकता आ नहीं सक्ती इस विषयमें प्राचार्य For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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