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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की मैं इस का स्वामी हूं ऐसा मत पदार्थ में अवश्यंभावी विकल्प उठता है । और विकल्पमें स्वानुभूति नहीं होती। ' अथवा निश्चयावलम्बी को भी प्राचार्याने मिथ्यादृष्टि बतलाया है। "उभयं णयं विभणियं जाणइ ण वरंतु समयपडिबद्धो । रण हु णयपक्खं गिरहदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो" अर्थात्-जो दोय प्रकार का नय कहा गया है उन्हें सम्यग्दृष्टि जानता तो है पर तु वह किसी भी नय का पक्ष ग्रहण नहीं करता, वह नय पक्ष ले रहित है । अतः उपरोक्त गाथा से यह स्पष्ट हो जा.ा है कि सम्यग्दृष्टि निश्चय नय का भी अवलम्वन नहीं करता है। दूमरी बात यह भी है कि निश्चय नयको भी आचार्यों ने सविकल्पक बतलाया है। और जितना सविकल्पक ज्ञान है उसे अभूतार्थ बतलाया है । जैसा कि कहा गया है "यदि वा ज्ञानवि कल्यो नयो विकल्पोस्ति सोप्यपरमार्थः' इसलिये सविकल्म ज्ञानात्मक होने से भी निश्चय नय मिध्चा सिद्ध हो जाता है। तथा अनुभव में भी यही बात आती है-जितने मो नव है ममा परसमय मिथ्या हैं। और उनका अलम्बन करने वाला भी मिथ्याष्टि है । इसलिये सम्यग्दृष्टि नय पक्ष नहीं करता : जे न करें नयपक्ष विवाद बरे न विषाद अलीक न भाखें जे उदवेग तजे घट अंतर सीतलभाव निरंतर राखें । जे न गुणीगुण भेद विचारत आकुलना मनकी सब नाखें For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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