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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की अवक्ताय है । एसे यह सप्तभंगी सम्यग्दर्शनादिक तथा जीवादक पदार्थनिविधे द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयका मुख्य गौण भेद करि लगानेसे शनन्तवस्तु अनन्तधर्मके परम्पर विधिनिषेधते अनन्त सप्त भंगीहोय है । इनिका सर्वथा एकान्त अभिप्राय होय तो मिश्या वाद है इसी प्रकार सप्तभंगी प्रमाण और नयों में भी होती है यहां प्रमाण का विषय तो अनन्त धर्मात्मक वस्तु है तहां एक ही वस्तु का वचन के सर्व धर्मनिकी अभेदवृत्ति करि तथा अन्य वस्तु के अभेदके लाचार करि प्रमाण सप्तभंगी होय है। तथा नय का विषय एक धर्म है ताते तिस धर्म की भेदवृत्ति करि तथा अन्य नय का विषय जो अन्य धर्म ताके भेदके उपचारकरि नय सप्त मंगी होय है (शंका) अनेकान्त ही है ऐसे भी एकान्त पाये है . घ अनेकान्त कैसे रहा ? ताका समाधान-यह सत्य है जो अनेकान्न है.सो भी अनेकान्त ही है जाते प्रमाण बचन करि तो अनेकान्त ही है। नया नय वचन करि एकान्त ही है। ऐसे एकान्त ही सम्यक है जहां प्रमाणकी सापेक्षा है । और जहां निरपेक्ष एकान्त है सो मिथ्या है । इहां फेर शंका-अनेकान्त तो छलमात्र है पैलेकी युक्ति वाधने को छलका अवलम्बन है। समाधान-छलका लक्षण तो अर्थ का विकल्प उपजाय पैलेका वचन खंडन करना है। सो अनेकान्त ऐसा नहीं है । क्योंकि वह तो धर्म की प्रधान गोण की अपेक्षाकरि वस्तु जैसी है वैसी कहे है इसमें छल काहेका है। फेर यदि कोई यह शंका करे कि दोय पक्षका साधन तो संशयका कारण है उत्तर-दोपक्ष साधना संशयका कारण नहीं है संशय मिटाने का कारण है संशयतो तब होय जवकि दोऊ पक्षका निश्चय न होय । परन्तु यहां तो अनेकान्तविर्षे दोऊपक्षके विषय प्रत्यक्ष निश्चित हैं इसलिये मंशयका कारण नहीं है और विरोध भी नहीं है क्योंकि नय करि ग्रहें ले विरुद्ध धर्म तिनिका मुख्यगोणके कथनके भेदते सर्वथा भेद नहीं है । जैसे एक ही पुरुषविषे पितापणा पुत्र For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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