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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की वाला है अतः इनके सप्त भंग होते हैं। जैसे एक घटनाम वस्तु है सो कचित् घट है । कथंचित् अघट है । कथंचित अवसव्य है कचित् घट अवक्तव्य है । कचित् अघट अवक्तव्य है। कचित् घट अघट अवतव्य है । ऐसे विधिनिषेध का मुख्य गौरण विवक्षा करि निरूपण करना। तहां अपने स्वरूपकार कचित् चट है। परस्वरूपगरि कथंचित् अघट है । तहां का ज्ञान तथा घटका अभिधान (संज्ञा) की प्रवृत्तिका कारण जो घटाकार चिन्ह सो तो घटका स्वात्मा कहिये स्वरूप है । जहां घट का ज्ञान तथा घटका नामकी प्रवृत्तिका कारण नहीं ऐमा पटादिक सो परात्मा कहिये परका स्वरूप है। सो अपने स्वरूपका ग्रहण और पर स्वरूपका त्यागकी व्यवस्था रुप ही वस्तुका दस्तुपणा है । जो आप वि परते जुदा रहनेका परिणाम न होय तो सर्व पर घट रूप हो जायगा अथवा परते जुदा होते भी अपने स्वरूपका प्रह का परिणाम न होय तो गधाके सींगवत् अवस्तु ठहरे ऐसे से विधि निषेध रूप दोय भंग होते हैं इसी प्रकार सब पर घटा लेने चाहिये तथा नाम स्थापना द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपों पर भी घटित करलेना चाहिये। जाकी विवक्षा करिये सो तो घटका वात्मा है जाकी विवक्षा न करिये सो परात्मा है अतः विवक्षित स्वरूप करि तो घट है। तथा अविवक्षित स्वरूप करि अघट है जो अन्य स्वरूप भी घट हो जाय और विवक्षित स्वरूप करि न होय तो नामादिकका व्यवहार का लोप हो जाय । ऐसे ये च्यारिनिके दोय दोय भंग होते हैं अथवा विवक्षित घट शब्दवाच्य समानाकार जे घट तिनिका सामान्यकर, जे विशेषाकार घट तिति विषे कोई एक विशेष ग्रहण करिये ता विषे जो न्यारा आकार है मो तो घट का स्वात्मा है अन्य सर्व परात्मा है । तहाँ अपना जुद | रूप करि घट है अन्य रूप करि अघट है जो अन्य रूप करि For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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