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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा अन्य अवशे. गुणनिकार करिये ऐसे उपकारकरि अभेदत्ति है तथा जोही गुणीका देश मनुष्यपणाका है सो ही अन्य सर्वगुणनिका है। ऐसे गुणदेशकार अभेदवृत्ति है । तथा जाही एकवस्तुस्वरूपकरि मनुष्यपर्यायका संसर्ग है सोही अन्य अवशेष धर्मनिका ई ऐसे संसर्गकरि अभेदवृत्ति है। तथा जोही मनुष्य ऐसा शब्द मनुष्यस्वरूपवस्तुका बाचक है सोही अन्य अवशेषअनेकधर्मोका है ऐसे शब्द करि अभेद वृत्ति है ऐसे पहचाधिकनयके गौण होते द्रव्याथिकनयकी प्रधानतात अभेदवृत्ति वर्ण है। ऐसे ही द्रव्याथिक नय गौण होते पर्यायाथिक प्रधान करनेसे कालादिककी अभेदवृत्ति अष्ट प्रकार नहीं वो है क्योंकि क्षरण क्षण प्रति मनुष्यपणा और और गुण पर्याय रूप है । इसलिये सर्वगुणपर्यायनिका भिन्न भिन्न काल है एक काल एक मनुष्य पणा विपे अनेक गुण असंभव हैं। यदि संभव मानिये तो गुणनिका आश्रयरूप जो मनुष्यनामा वस्तु सो जेते गुण पर्याय हैं उत्तने ठहरे इमलिये कालकरि भेदत्ति है । तथा अनेक गुणपर्यायनिकार किया गया उपकार भी जुदा जुदा है यदि एकही मानिये तो एक मनुष्यपणा ही उपकार ठहरे ऐसे उपकारकरि भेदवृत्ति है। तथा गुणनिका देश है सो गुणगुणप्रति भेदरूपही करिहै अन्यथामनुष्यपणाका ही देश ठहरे अन्यका न ठहरै इसलिये गुणदेशकरि भी भेदवृत्ति है । तथा संसर्गकारभी भेदवृत्ति है । तथा शब्द भी सर्वगुणपर्यायनिका जुदा जुदा वाचक हैं । एक मनुष्यपणा ऐसा ही वचन होय तो सर्वके एक शब्द वाच्यपणाकी प्राप्ति ठहरे ऐसे मनुष्यपणाने आदिकरि सर्वही गुणपर्यायनिके एक मनुष्य नाम वस्तुविषे अभेदवृत्तिका असंभवपणाते भिन्न भिन्न स्वरूपनिकरि भेदवृत्ति भेदका उपचार करिये है। ऐसे इनि दोऊ मेदवृत्ति भेदोपचार अभेदवृत्ति अभेदोपचारत एकशब्दकरि एक मनुष्यादि वस्तु में अनेकधर्मात्मकपणाको स्यात्कार है वह प्रगट करने For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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