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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ...marnamani.marrrrrrrrs. समीक्षा था. विशेषरहित वह पदार्श भी मिथ्या है एवं उसका श्रद्धान करनेवाला जोबभी मिथ्यादृष्टि है । इसलिये प्रमाण नय करि जो बालुका जानपना होता है वह दो प्रकारसे होता है ज्ञान द्वारा तथा शाल द्वारा । ज्ञान तो पंच प्रकार का मतिश्रुतादि । तथा शब्दात्मक विध निषेधरूप है । कोई शब्द तो प्रश्नके करने पर विधिरूप है असे सर्ववस्तु अपने द्रव्य क्षेत्र काल और भाव करि अस्तित्वरूप हे तथा कोई शब्द निषेधरूप है। जैसे समस्त वस्तु परचतुष्टयकर मास्तित्वरूप ही है तथा कोई शब्द विधिनिषेधरूप है जैसे समस्त वस्तु अपने तथा परके द्रव्यक्षेत्रकाल भाव करि अनुक्रम करि अस्तिनास्तिरूप है । तथा कोई शब्द विधि निषेध दोनोंको अवकम्य कहै है । जैसे समस्तवस्तु अपने वा परके चतुष्टयसे एक काल अस्तित्वनास्तित्वस्वरूप है । अत: एक काल ( समय) कहे जाते नहीं इसलिये अवक्तव्यस्वरूप है । तथा कोई शब्द विधिनिषेधको क्रमकरि कहै है एक समयमें नहीं कहा जाय है इसलिये विधि अवक्तव्य निषेध अवक्तव्य अथवा विधिनिषेधश्रवक्तव्य ऐसे विधिनिषेधके शब्द सप्त भंग रूप वस्तुको साधे हैं ! इसलिये वस्तु का स्वरूप सर्वथा वचन अगोचर ही है सो बात नहीं है क्योंकि सर्व ही पदार्थ ममान परिणाम असमानपरिणाम रूप है । इस लिये समानपरिणाम है वह तो वचनगोचर है । तथा सर्वथा अममानपरिणाम शुद्धद्रव्यके शुद्ध पर्यायके अगुरुलधु गुणके अविभाग परिच्छेद रूप पर्याय है वह किसी द्रव्यके समान नहीं है। इसलिय वह वचन अगोचर है। क्योंकि वचनके परिणाम तो संख्यात ही है । और यह असमान परिणाम अनन्तानन्त हैं। इस लिये इनकी संज्ञा वचनमे बन्धतो नहीं तात ये प्रवक्तव्य ही हैं। ऐसे वक्तव्यावक्तव्यरूप वस्तुका स्वरूप है । अतः वक्तव्यावक्तव्य स्वरूप वस्तु को साधने केलिये कथंचित् शब्दका भी प्रयोग करना चाहिये क्योंकि कथंचित् शब्दसे एकान्तवादका परिहार और For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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