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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की चित असत्यार्थ कैसा ? वह भी एकदेश सत्यार्थ है उन नयों का कहना यदि निरपेक्ष है तो वह प्रमाण वा अङ्ग भी नहीं है और उनका कहना भी अभूतार्थ है-मिथ्या है। क्योंकि उससे वस्तुकी सिद्धि नहीं होती । वस्तु न तो भेदरूप ही है और न अभेदरूप है' है! वस्तु भेदाभेद रूप है, सामान विशेषात्मक है । अतः उसका कथन मुख्य और गौर से किया जाय तो वस्तुस्वरूपकी सिद्धि होती है अन्यथा नहीं मुख्य गौणसे वस्तुकी सिद्धि तवही हा सकती है जब दोनों नय मापेक्ष हो. निरपेक्ष नयों में मुख्य गौण की व्यवस्था ही नहीं बनती इसलिये निरपेक्ष नयों से कहा हुआ पदार्थ अपरमार्थभूत ही है और उसका प्रतिपादन करनेवाला नय भी अपरमार्थभूत है। परन्तु मुख्यगौण कीपेक्षा वस्तु का भेदाभेद रूप कथन अपस्मार्थभूत नहीं है. क्योंकि वस्तु में यह गुण है इन गुणवाली वस्तु है यह ज्ञान भेदाae arts fear नहीं होता । जिस प्रकार मनुष्यके हस्तपादादि अवयव अंग उपांग हैं, गौर स्वास्मादि रूप है वाल युवादि अवस्था उसकी पर्याय है इस प्रकार भेदको जाने विमा मनुष्य ऐसा होता हैं ऐसा ज्ञान बिना भेदके कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है उमीप्रकार वस्तु गुण और पर्याययुक्त है अतः वस्तुके गुणांका और उनकी पर्यायोंका भेदरूप ज्ञान हुये विना यह वस्तु इन गुणों वाली तथा पर्यायवाली है ऐसा ज्ञान कैसे होगा ? कदापि नहीं होगा । इसलिये व्यवहार नय द्वारा वस्तुमें अभेदको गौण कर किया गया भेद वस्तुस्वरूपका ही प्रतिपादक है इसलिये व्यवहार नय भी परमार्थाभूत है । किन्तु उस वस्तुका कथन सामान्य धर्म का लक्ष्य छोडकर निरपेक्षभेदरूप करै ता वह पदार्थभी मिथ्या है और उसका कथन करनेवाला नय भी मिथ्या है तथा पदार्थको भेरूप समझनेवाला भी मिध्यादृष्टि है उसी प्रकार भेद निरपेक्ष केवल सामान्यधर्मका प्रतिपादन करनेवाला निश्चयनय भी मिथ्या 4 : For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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