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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ___ अर्थात् गुण ऐसा तो द्रव्यका विधान है। गुणनिका समुदाय वह द्रव्य ह , तथा द्रब्यके विकार कहिये क्रमपरिणाम ते पर्याय है । अतः गुण पर्याय सहित है सो द्रव्य है। वह अयुत प्रसिद्ध है संयोगरूप नहीं है । तादात्मक स्वरूप है नित्य है अपने विशेष लक्षणकर लक्षित है। जब द्रव्यका लक्षण गुण और पर्यायवान है तब उसका वोध (ज्ञान) विना नय प्रमाण निक्षेपों के नहीं हो सकता (क्योंकि) निश्चयनय तो अवाच्य है उसके द्वारा वस्तु स्वरूपका विवेचन नहीं किया जा सकता । विना विवेचनके वस्तु स्वरूप समझमें भी नहीं आ सकता । इसलिये धर्म अथवा दर्शनकी स्थिति के लिये अर्थात् वस्तु के स्वभावको जनानेवाला कोई बोलनेवाला भी होनाचाहिये वह बोलनेवाला व्यवहार है इस बातको हम ऊपर बतला चुके हैं विना प्रमाणादिक के निश्चयनय का भी क्या विषय है इसका भी वोध नहीं हो सकता इसलिये व्यवहारनय द्वागही वस्तु स्वरूपका चोथ हो जाता है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। ऐसा वोध होनेपर ही उन अनन्तगुणों से युक्त एक अखंडपिण्ड वस्तु है ऐसा निश्चय हो जाता है इसलिये भिन्न भिन्न रूप से वस्तु स्वरूप समझने की भी आवश्यकता है क्योंकि भिन्न भिन्न स्वरूप समझे विना यह वस्तु ऐसी है यह वस्तु ऐसी है ऐसा ज्ञान नहीं होता और ऐसा शान हुये विना परमार्थ की सिद्धि भी नहीं हो सकती। ..इसलिये प्रमाणादिकसे जीवादि वस्तु स्वरूप समझने से ही श्रद्धान दृढ होता है । जीवादि वस्तु स्वरूप समझ कर उस पर विश्वास करनाही सम्यक्त्व है और वही परमार्थ स्वरूप है। अत:वस्तु म्वरूप समभाने के लिये ही आचार्यों ने प्रमाणादिक का कथन किया है। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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