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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . समीक्षा और इम अपेक्षा सद्भुत व्यवहारनय परमार्शभूत है जिसका खुलासा हम ऊपर कर चुके हैं । व्यवहारनय परमार्थाभूत क्यों है इसका खुलासा देवसेन प्राचार्य भी कर चुके हैं जिसको आपने भी उद्ध त विया हैं । जै० त० मी. पृ. ७ ___"उपनयोपजनितो व्यवहारः प्रमाण नयनिक्षेपात्मा भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः । कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत् ! सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात, अस द्भूतस्तु उपचारोत्पादकत्वात् । उपचरितासद्भुतस्तु उपचारादपि उपचारोत्पादकत्वात । योऽसौ भेदोपचारलक्षणोर्थः सोऽपरमार्थः ।" - इसका अर्था आपने इस प्रकार किया है, प्रमाण नय, और निक्षेपात्मक जितने भी व्यवहार हैं वह मब उपनयसे उपजनित है भेद द्वारा और उपचार द्वारा वस्तु व्यव्हार पदवीको प्राप्त होती है इसलिये इसकी व्यवहार संज्ञा है। ...इसका स्पष्टीकरण करते हुये आपने व्यहारनय को उपनय से उपजनित वताकर अपरमार्थाभूत सिद्ध किया है भेदका उत्पादक सद्भूत व्यवहारनय है । उपचारका उत्पादक असद्भूत व्यवहार नय है और उपचार से भी उपचार का उत्पादक उपचरित असद्भूत व्यवहार है। और जो यह भेद लक्षण वाला तथा उपचार लक्षण वाला अर्थ है वह भी अपरमार्थभूत है अतः व्यवहार अपरमार्थ का प्रतिपादक होने से अपरमार्थभूत है - इस कथन से पं० फूल चन्दजी ने प्रमाण नय निक्षेपों को असत्यार्थ अपरमार्थभूत सिद्ध करके ब्यवहार का लोप करना इष्ट समझा है । क्योंकि देवसेन आचार्य प्रमाण नय और निक्षेपों से वस्तु में भेदोपचार द्वारा ब्यवहार की प्रवृत्ति होती है। प्रमाण For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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