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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org :y जैन तत्त्वमीमांसा को तथा जब वस्तु के सामान्य भी गुण उसमें ही दीखते हैं. उसके बाहर नहीं दीखते तब वस्तु परमाणु के समान उसके गुणां से वह अखंड ही प्रतीत होती है। इतने बोध होने पर ही वस्तु अनन्य शरण प्रतीत होती है । इस कथन से सद्भूत व्यवहार नय परमार्थभूत भी है. ऐसा सिद्ध हो जाता है। क्योंकि वस्तु स्वरूप समझना तथा वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न है और अपने गुणों से अभिन्न है नित्य है शंकर आदि दोषों से रहित है ऐसा समझना ही तो परमार्थ है । इसको सर्वथा परमार्थं भूत मानकर इसके बिना परमार्थ की सिद्धि चाहना वालूरेत के पेलने से तेल की प्राप्ति के समान असंभव ही है। आप जो यह कहते हैं कि आचार्य देवसेन का कथन है कि"इस द्वारा उन्होंने जबकि एक अखण्ड द्रव्यमें गुणगुणी आदि के आश्रय से होने बाले सद्भूत व्यहार को ही अपरमार्थभूत बतलाया है ऐसी अवस्था में दो द्रव्यों के आश्रय से कर्ता कर्म आदि रूप जो उपचरित और अनुपचरित श्रसद्भूत व्यवहार होता है उसे परमार्थभूत कैसे माना जासकता है अर्थात् नहीं माना जा सकता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( जैन तत्र मीमांसा ) पंडितजी ! देवसेन आचार्य ही क्यों सब ही आचार्यों ने सद्द्भूत व्यवहार नय को अपरमार्थ भूत माना इस बात को कोई भी विद्वान नय चक्रको जानने बाला अस्वीकार नहीं कर सकता किन्तु साथ में इसको ( सद्भूत व्यवहार नव को ) परमार्थभूत भी माना है इस बात को भी तो लिखिये। अपनी पतपुष्टि के लिये अन्यथा तो निरूपण मत कीजिये । परमार्थभूत भी माना है इन दोनों पक्षका सब ही आचार्यों ने स्पष्ट शब्दों में विवेचन किया है कि इस अपेक्षा सद्भूत व्यवहारमय अपरमार्थाभृत है For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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