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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की सब नय अपने अपने विषय में भूतार्थ हैं सत्यार्थ हैं किसी नय का विषय कल्पित नहीं है जीव में होने वाले शुद्धाशुद्ध परिणमन कारी बोध कराती है। सद्भूत व्यवहार नय और असद्भूत व्यवहार नय अथवा निश्चय नय से सब प्रमाण के ही अंश है इसालेये इनका कथन भी प्रमाण भूत है । प्रमाण का लक्षण"उक्तोव्यवहारनयस्तदनुन योनिश्चयः पृथक्पृथक् । युगपदद्वयंचमिलितप्रमाणमितिलक्षणंवदये" ७६४ पंचाध्यायी व्यवहार और निश्चय नय का स्वरूप कहा गया दोनों ही नय भिम भिन्न स्वरूप वाले हैं। जब दोनों नय एक साथ मिल जाते हैं तभी वह प्रमाण का स्वरूप कहलाता है। उसी प्रमाण का. लक्षण कहा जाता है। "विधिपूर्वःप्रतिषेधप्रतिषेधपुरस्सरोविधिस्त्वनयोः। मैत्रीप्रमाणमिति का स्वपराकाराबगाहियज्जानम्" ६६५ अर्थात-विधि पूर्वक प्रतिषेध होता है, प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है । और विधि और प्रतिषेध इन दोनों की जो मैत्री है वही प्रमाण कहलाता है । अथवा स्वपर को जानने वाला जो ज्ञान है वही प्रमाण कहलाता है । इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार और निश्चय इन दोनू नयों की मैत्री ( सापडता) का ही नाम प्रमाण है व्यवहार नय का विषय विधि रूप है और निश्चय नय का विषय प्रतिषेध रूप है। विधि निषेध रूप प्रमाण का विषय है। ___ इसका खुलासा आचाय स्वयं कहते हैं। "अयमोंर्थ विकल्पोज्ञानंकिललक्षणस्वतस्तस्य । एक विकल्पोनयसादुभयविक न्यः प्रमाणमितिबोध" ६६६ For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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