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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असद्भुत व्यवहार नय की प्रवृत्ति में हेतू-- भारणमन्तीनाद्रव्यस्यविभावभावसाक्तस्यात् । मा भवति सहजसिद्धा केवलमिहजीवपुद्गलयोः ५३१ पंचाध्यायी असद्भुत व्यवहार नय की प्रवृत्ति क्यों होती है । इसका कारण द्रव्य में रहने वाली वैभाविक शक्ति है । वह स्वभाविक शक्ति है । केवल जीव औरपुद्गल में ही पाई जाती है। यह दोनों द्रव्यों का स्वाभाविक गुण है। उस गुण का वैभाविक परिणमन पर निमित्त से होता है। विना निमित्त के उसका स्वभाविक परिणमन होता है उसीवैभाविक शक्ति के विभाव परिगमन से असद्भूत व्यवहार नय के विषय भूतजीव के क्रोधादि भाव बनते हैं। ___ असद्भूत व्यवहार नय का फल"फलमागन्तुभावादुपाधिमात्र विहाय यावदिह ! शेषस्तच्छुद्धगुणस्यादितिमत्वासुदृष्टिरिह" पंचाध्यायी - जीव में क्रोधादि उपाधि है बह आगन्तुक भावकों से हुई है । उपाधी दूर कर देने से जीव शुद्ध गुण वाला प्रतीत होता है । अर्थात् जीव के गुणों में पर निमित्त से होने वाली उपाधि को हटा देने से उसके चारित्र आदि शुद्ध गुण प्रतीत होने लगते हैं ऐसा समझ कर जीव के स्वरूप को पहिचान कर कोई मिथ्यादृष्टि अथवा विचलित 'वृत्ति जीव भी सम्यकदृष्टि हो सकता है वस यही इस नय का फल है । सारांश यह है कि जब असद्भूत व्यवहार नय का विषय समझ लेने से उसका फल सम्यक्त्व की प्राप्ति होना आचार्यों ने बतलाई है तब वह भी परमार्थ भूत है । क्योंकि सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाना ही तो परमार्थ भूत है । इमको अपरमार्थ भूत समझना अज्ञानता है। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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