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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा समुत्तमचमादिदशभेद सुददाति सुष्ठु अतिशयेन् दाति । कामं अर्धमण्डलीकमण्डलिकमहामण्डलिकबलदेववासुदेव चक्रवर्ती द्रधरणेन्द्रभोगं तीर्थंकर भोगं च यो दाति स देयः सुष्टु ददाति ज्ञानं च केवलं ज्योतिः ददाति पर पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते असत्कथं दातुं समर्थः यश्चाथों वर्तते सोऽयं ददाति यस्य धर्मो वर्तते सधर्म ददाति यस्य प्रवज्यां दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभृता प्रवज्यां ददाति चस्प सर्व सुखं वर्तते स सर्व सौख्यं ददाति"।... ___ यहां पर यह शङ्का हो सकती है कि क्या ये सब वस्तुयें देव के पास रक्खी हुई हैं सो अपने भक्तों को प्रदान कर देते हैं। अथवा भक्त तो अनेक हैं किन किन को ये वस्तुयें प्रदान करेंगे। अथवा देव का लक्षण किया है सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी इन तीन गुण विशष्टि हो सो देव । अतः जो वीतराग होगा वह रागद्वष रहितही होगा उनके द्वारा देने लेने का सवालही उपस्थित नहीं होता, देने लेने का कार्य तो राग द्वेषी जीवों का है, फिर कुन्दकुन्द स्वामी ने देव का स्वरूप निरूपण करते यह कैसे कहा कि सर्व प्रकार के संसारी और मोक्ष सुखों को देवे सो देव इत्यादि शकाओं का समाधान यह है कि देव किसी को कुछ देते नहीं किसी से कुछ लेते भी नहीं भक्ति पूजनादि कराते नहीं, उनके पास ये वस्तुयें हैं भी नहीं वे तौ वीतराग सर्वज्ञ हितपदेशी है उनके प्रति यह सबाल ही उपस्थित नहीं होता कि वे कुछ ही भक्तों को देते हैं या उनसे कुछ लेते हैं । किन्तु "यपि तुमको रागादि नहीं यह सत्य सर्वथा जाना है । चिन्मरति आप अनन्त गुनी नित शुद्ध दशा शिव थाना है । तद्दपि भक्तनकी भीड़ हरौ सुख देत तिन्हें जु सुराना है ! . H . For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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