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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २४ www.kobatirth.org जैन तत्त्व मीमांसा की नय द्वारा पाषाणादिक में स्थापन किया हुआ जिनराज का प्रतिबिम्ब सो भी सर्वथा परमार्थ भूत नहीं है क्योंकि उसके द्वारा भी जिस प्रकार शास्त्र ज्ञान द्वारा आत्म ज्ञान की प्राप्ति होती है इसलिये शास्त्र ज्ञान परमार्थ स्वरूप है उसी प्रकार जिन स्वरूप जिन विम्ब द्वारा श्रात्म स्वरूप की प्राप्ति होती है इसलिये जिन विम्ब का आराधन भी परमार्थ स्वरूप है । मोक्षमार्ग अनादि काल से इसी के द्वारा अविच्छिन्न रूप से चलता है । “साधु ही की पूजा से हजार गुण फल जिन, जिनसे हजार गुण फल पूजा सिद्धि की सिद्धते हजार गुण फल जिन प्रतिभा की, तिहू काल दाता आठों नवों निधिरिद्धि की । ताहिं देख देख साधु श्रर्हत सिद्धभये, तातें करता है पाचों पद वृद्धि की करे न बखान मिद्ध होने को है यही ध्यान मोक्ष फल देत कौन बात स्वर्ग ऋद्धि की " अतः कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय चैत्य अनादि कालीन हैं और वह सम्यक्त्व रूप परमार्थ की सिद्धि में निमित्त भूत हैं इसलिये जिस प्रकार शास्त्रों के ज्ञाता को त केवलो कहा गया है उसी प्रकार जिन विम्ब से जिन स्वरूप की प्राप्ति होती है। शास्त्र भी जिन वचन लिपिबद्ध मूर्ति स्वरूप है उसके पढ़ने से आत्म बोध प्राप्त होता है उसी प्रकार पाषाणादिक में अङ्कित किया हुआ जिन स्वरूप उसके अवलोकन से श्रात्मोपलब्धी रूप परमार्थ की प्राप्ति होती है । कुन्दकुन्द स्वामी देव का स्वरूप निरूपण करते कहते हैं कि "सो देवो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ गाणं च । . Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सो देइ जस्स अस्थिहु अन्थो धम्मो य पवज्जा" २४ बोधप्राभृते टीका -- स देवी योऽर्थं धनं निधिरत्नादिकं ददाति । धर्म चारित्रलक्षणं, दयालक्षणं वस्तुस्वरूपमात्मोपलब्धि For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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