SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४ जैन तत्र मीमांसा की I निश्चयावलम्बी को भी मिध्यादृष्टि कहा गया है क्योंकि निश्चय नय भी सविकल्पक है और जितना सविकल्प ज्ञान है वह सब ज्ञान अभूतार्थ है । मिथ्या है। इस कथन से निश्चय नव भी अभूतार्थं सिद्ध हो चुकी उसके द्वारा भी परमार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती इसलिये निश्चय नय को परमार्थ भूत मानना यह भी मिथ्या है | आचार्यों ने प्रमाण को सकलादेश माना है, उसके भी स्वार्थ और परार्थ रूप दो भेद हो जाते हैं, स्वार्थ प्रमाण ज्ञानात्मक है और परार्थ प्रमाण वचनात्मक द्रव्य श्रुत रूप है ! . अतः प्रमाण सकलादेशी होने पर भी द्रव्यं श्रुत प्रमाण चनात्मक है इसलिये वह परार्थ है । अतः परार्थ प्रमाण वस्तु को सकलादेश किस प्रकार ग्रहण कर सकेगा क्योंकि वस्तु स्वरूप वचनातीत है और परार्थ प्रमाण वचनात्मक है इसलिये वचन द्वारा वस्तु का सकलादेश प्रहरण हो नहीं सकता वह तो अनुभव गम्य है इसलिये परार्थ प्रमाण भी निश्चय नय की तरह अपरमार्थ भूत ही ठहरता है । । " द्रव्यार्थिक नय परियायार्थिक नय, दोऊ श्रुतज्ञान रूप श्रुतज्ञान तो परोक्ष है | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्ध परमात्माका अनुभौ प्रगट, तातें अनुभौ विराजमान अनुभौ अदोख है || अनुभौ प्रमाण भगवान पुरुष, पुराण ज्ञान और विज्ञानघन महासुख पोख है । परम पवित्रयो अनन्त नाम अनुभौके । अनुभौ विना न कहूं और ठौर मोख है" || For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy