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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mmr.wmmmmmmm.. समीक्षा ..mrrrrr ...mmmmmmmmmmmmmmmmmm..." रूप परमार्थ है । इस लिये निश्चय नय को परमार्थ भूत मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि उस समयसारभूत परमार्थ का बोध होना वह ज्ञानगम्य है, किसी नय का विषय नहीं है । नय तो द्रव्य श्रुत का अंश है इसलिये परोक्ष भी है कचित् जड़ रूप भी है और सविकल्प भी है। "सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति" __इस कथन से निश्चय नय भी सविकल्प है और परार्थ है इसलिये वह भी सविकल्पक होने से व्यवहार नय की तरह अपरमार्थभूत ही है इसकारण आचार्थान इसको भा मिथ्या "उभय यं विभणिम जाणइ णवर तु समयपडिबद्धो । ण दु णयपक्खं गिव्हदि किंचिवि सयपक्सपरिहीणो" ॥ __अर्थात् दोय प्रकार के नय कहे गये हैं उन्हें सम्यग्दृष्टि जानता तो है परन्तु किसी मी नय के पक्ष को ग्रहण नहीं करता है। वह नयपक्ष से रहित है। "जे न करे नय पक्षविवाद धरे न विषाध अलीक न भाखें जे उदवेग तजे घट अन्तर सीतलभाव निरन्तर राखें । जे न गुणीगुगभेदविवारत आकुलता मनकी सब नाखें। ते जगमें धरि आत्मध्यान अखंडित ज्ञान सुधारस चाखें" कर्ता कर्म क्रिया द्वार "इत्युक्तम्पादपि सविकल्पवात्तथानुभूतेश्च । सोपि नयो यावत्परसमयः स च नयावलंबी" ६४७ ।। संचाग्यायी For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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