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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .१०० जैन तत्त्व मीमांसा की अर्थ--यदि यह कहा जाय कि लोक में यह यवहार ? त है कि घटकार-कुम्हार घट का बनाने वाला है मोक्यों? आचार्य कहते हैं कि उस व्यवहार को होने दो मम हमारी कुछ भी हानि नहीं है किन्तु उसे नयाभास ममझो अर्थात उमे नयाभास समझकर बराबर व्यवहारो। इमसे हमारे कथन में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती है परन्तु उसे नय ममझन वाला लोक व्यवहार है तो वह मिथ्या है। तीसरा नयाभाम "अपरे वहिरात्मानो मिथ्यावाद बदन्ति दमनयः । यद्गुरेऽपि परस्मिन् कर्ता भोक्ता परोपि भवनि यथा" । ५८० पंचाध्यायी अर्थ--और भी खोटी बुद्धि के धारण करने वाले मिथ्यादृष्टि पुरुष मिथ्या बात कहते है जैसे जो पर पदार्थ सर्वथा दूर है जीव के साथ बन्धा हुआ भी नहीं है उसका भी जीव कर्ता भोक्ता हाता है ऐसा वे कहते है। "सद्व द्योदयभावान् गृहधनधान्यकलत्रपुत्रांश्च । स्वमिह करोति जीवो मुनक्ति वा स एव जीवश्च" । ५८१ पंचाध्यायी अथ-साता वेदनीय कम से, उदय में होने वाले घर, धन धान्य, स्त्री, पुत्र, मजीव निर्जीव पदार्थ स्थावर जंगम सम्पत्ति है उनका जीव ही भर्ता है और वही जीव उनका भोक्ता है। ननु सति गृहनिनादौ अति सुखं प्राणिनामिहाध्यक्षात असति च तत्र न नदिदं तत्कता स एव नद्भोक्ता ।। ५८२ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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