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________________ बाह्यकारणमीमांसा (२) उक्त टोकामें यह तो स्वीकार किया ही गया है कि गति और स्थिति करनेवाले पदार्थों की गति और स्थिति निश्चयसे अपने-अपने गमन क्रियारूप और ठहरनेरूप परिणाम करनेसे ही होती है तब इससे क्या यह सुतरां फलित नहीं हो जाता कि लोकमें स्व-परसापेक्ष | जितने भी कार्य स्वीकार किये गये हैं वे भी सब परमार्थसे स्वयं अपनेअपने परिणामके ही मुख्य कर्ता हैं । अवश्य फलित हो जाता है। । __ (३) यदि इन दोनों धर्म और अधर्म द्रव्योंकी मुख्य हेतुमें परिगणना की जाती है और यह स्वीकार किया जाता है कि ये दोनों द्रव्य जीवों और पुद्गलोंकी गमन क्रिया और स्थिति क्रियाके मुख्य कारण है । तो ऐसा मानने पर एक तो अन्तर्व्याप्तिके बल पर इन दोनोंके जीव और पुद्गलमय प्राप्त होनेका प्रसंग आता है और ऐसी अवस्थामे ये दोनों क्रमसे अपने गति हेतुत्व और स्थिति हेतुत्व गुणोंके कारण सदा ही जिनकी गति होगी उनकी गति ही करते रहेंगे और जो स्थित होंगे उनकी सदा स्थिति ही बनाये रखेगें। यदि कहा जाय कि हम इनको जीवो और पुद्गलोंकी गति और स्थितिका वास्तविक कारण नही मानते, हमने तो इन्हें मुख्य रूपसे बाह्य निमित्त स्वीकार किया है तो यतः ये नित्य स्वीकार किये गये हैं, अतः व्यवहार निमित्त-नैमित्तिक भावसे भी ये जिनकी गति होगी उनकी गतिमें सदा बाह्य निमित्त होते रहेगे और जिनकी स्थिति होगी उनकी स्थिति में भी ये सदा बाह्म निमित्त होते रहेंगे यह दोष आता है, जिसे टाला नहीं जा सकता। इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सिद्धोंके समान नित्य स्वीकार किये गये हैं, इसलिये ये गति और स्थितिके उपादान निमित्त तो हो ही नही सकते, बाह्य प्रयोग निमित्त भी नही हो सकते है। इसलिये ये दोनों द्रव्य मात्र बाह्य उदासीन निमित्त रूपसे स्वीकार किये गये है। आकाश द्रव्य और काल द्रव्यके सम्बन्ध में भी इसी दृष्टिसे समझ लेना चाहिये। __ अब मुख्यतः उन व्यवहार निमित्तोंके विषयमें विचार करना है जिन्हे लोकमें और आगममें परिणामक, उत्पादक आदि निमित्त रूपसे स्वीकार किया गया है । यद्यपि आगममें व्यवहार हेतुओंके विषयमे कर्तानिमित्त, प्रेरक निमित्त, उत्पादकनिमित्त परिणामकनिमित्त इत्यादि शब्दोंका प्रयोग दृष्टिगोचर होता है, अतः यदि आगममें अज्ञानी जीवके योग और विकल्प के अर्थमें इनका प्रयोग हुआ तो इनका प्रयोगकर्ता निमित्तमें अन्तर्भाव
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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