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________________ जैनतत्त्वमीमांसा सभी कार्यकलापका सत्त्वादिककी अपेक्षा कारणसे अभेद है, इस प्रकार इस नयका अवलम्बन करनेपर कारणसे कार्य अभिन्न है तथा कार्यसे कारण भी अभिन्न है यह स्वीकार किया गया है। यह कथन नेगम नयका है। इसको मुख्यतासे अध्यात्ममें सद्भूत व्यवहारनयके साथ असद्भूत व्यवहार नय कहा गया है। इसकी पुष्टि इस वचनसे भी होती है वस्त्रस्थानीय आत्मा लोध्रादिद्रव्यस्थानीय मोह-राग-द्वेष . कषायितो रजित परिणतो मजीष्टस्थानीयकर्मपुद्गले सश्लिष्ट सन् भेदेऽप्यभेदोपचारलक्षनेनासद्भूतव्यवहारेण बन्ध इत्यभिधीयते । -प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति ।। ___लोध्र आदि द्रव्य स्थानीय मोह, राग और द्वेषसे कषायित अर्थात् रंजित हुआ वस्त्रस्थानीय आत्मा मजीठस्थानीय कर्मपुद्गलोसे संश्लिष्ट होता हुआ असद्भूतव्यवहारनयसे बन्ध कहा जाता है । यही कारण है कि आचार्य अमतचन्द्रदेवने समयसार कलश १०७ मे तथा आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सूत्र १२ मे ऐसे व्यवहारको क्रमसे विकल्प और कल्पना कहा है। तथा आ० अमृतचन्द्रदेवने यह विकल्प उपचरित है यह भी स्वीकार किया है। ___इस प्रकार इतने विवेचनसे यह तो भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है कि बाह्य पदार्थमें निमित्तता क्यों स्वीकार की गई है। यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिए कि व्यवहार परस्पर सापेक्ष होता है, अन्वय-व्यतिरेकके सिद्धान्तके आधार पर काल प्रत्यासति देखकर जब एक द्रव्यकी पर्यायको कार्य कहा गया हो तो दूसरे द्रव्यको उस समयकी पर्यायको कारण कहा जाता है। कहीं-कहीं यह व्यवहार दोनों तरफसे भी देखा जाता है। जैसे किसी मनुष्यके एक ग्रामसे दूसरे ग्राम पहुँचनेके बाद एक पूँछता है कि आप कैसे आये, वह उत्तर देता है-साइकिलसे आये है । कालान्तरमें दूसरा पूछता है-यह साइकिल कौन लाया-वह उत्तर देना है--'मैं लाया हूँ।' इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि एककी कारणता या कार्यता दूसरे में तथा दूसरेकी कारणता या कार्यता पहलेमें स्वरूपसे नही है यह केवल व्यवहार है। जिनागममे जहाँ भी इस प्रकारकी कारणता या कार्यता स्वीकार की गई है वह केवल असद्भुत व्यवहारसे ही स्वीकार की गई है। अब देखना यह है कि बाह्य पदार्थ में इस प्रकारको व्यवहार हेतुता
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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