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________________ ४८ जैनतस्वमीमांसा सम्बन्धोंके साथ दो पदार्थों में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धके विषयमें भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए। ___ इतना विशेष है कि जिन पदार्थोका द्रव्यरूपसे अस्तित्व हो, वे सद्भूतरूपसे किसी न किसी ज्ञानके विषय अवश्य होते हैं, अतः उन्हींमें प्रयोजन विशेषसे ऐसा व्यवहार किया जाता है । जिनका अस्तित्व ही न हो उनमें ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता है । जैसे जब कि बन्ध्याके पुत्र होता ही नहीं, इसलिये यह पुत्र वन्ध्याका है ऐसा व्यवहार लौकिक दृष्टिसे भी स्वीकार नहीं किया जाता है। परमार्थके प्रति उपेक्षा रखनेवाले या उससे अनभिज्ञ कुछ विद्वानोंका कहना है कि व्यवहार नय सम्यग्ज्ञानका एक भेद है, इसलिये इसके द्वारा जो भी जाना जाता है उस सबको वास्तविक ही मानना चाहिए। उन मनीषियोंका यह ऐसा कहना है जो स्वाध्याय प्रेमियोंको केवल भ्रममें रखनेके अभिप्रायसे ही कहा जाता है। जब कि जैन-दर्शनके अनेकान्त सिद्धान्तके अनुसार ही एक वस्तुके गुण धर्म दूसरी वस्तुमें पाये ही नहीं जाते तो जो नय इसके निषेध पूर्वक केवल अन्वय-व्यतिरेकके आधार पर एक वस्तुके कार्यको निमित्तता अन्य वस्तुमें प्रयोजन विशेषसे स्वीकार करता है तो इसमें उस नयके सम्यग्ज्ञान होनेमें बाधा ही कहाँ आती है। जयधवला पृ० २७०-२७१ के इस वचनसे भी इसका समर्थन होता है होदु पिंडे घडस्स अस्थित्तं, सत्त-पमेयत्त-पोग्गलत्त-णिच्चेयणत्त-मट्टियसहावत्तादिसरूवेण, ण दंडादिसु घडो अस्थि, तत्थ तब्भावाणुवलंभादो त्ति ? ण, तस्थ वि पमेयत्तादिसरूवेण तदस्थित्तुवलंभादो । शंका---पिण्डमें सत्त्व, प्रमेयत्व, पुद्गलत्व, अचेतनत्व और मिट्टी स्वभाव आदि रूपसे घटका सद्भाव भले ही पाया जाओ, परन्तु दण्डादिकमें घटका सद्भाव नहीं है, क्योंकि दण्डादिकमें तद्भावलक्षण सामान्य अर्थात् ऊवता सामान्य या मिट्टी स्वभाव नहीं पाया जाता? समाधान नहीं, क्योंकि दण्डादिक अर्थात् दण्ड, चीवर, चक्र और पुरुषप्रयत्न आदिमें भी प्रमेयत्व आदि रूपसे घटका अस्तित्व पाया जाता हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि एक वस्तुके कार्यकी कारणता स्वरूपसे दूसरी वस्तुमें नहीं हो पाई जाती, केवल सादृश्य सामान्यके आधार पर उन दोनों या दोसे अधिक वस्तुओंमें अभेद करके कारणता
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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