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________________ ३८ जनतत्त्वमीमांसा स्वरूपकी अपेक्षा इन तीनोंमेंसे प्रत्येकके त्रिलक्षणपनेका अभाव होनेसे त्रिलक्षणस्वरूप सत्ताका अभिलक्षणस्वरूप सत्ता प्रतिपक्ष है । वह एक है यह पहले ही स्पष्ट कर आये हैं । इस प्रकार सत्ता एक होकर भी अनेक है, क्योंकि जो एक वस्तुकी स्वरूप सत्ता है वह अन्य वस्तुकी स्वरूप सत्ता नहीं है। इस प्रकार महासत्ताकी अपेक्षा एक पदके द्वारा व्यवहृतकी जानेवाली सत्ताको व्यक्तिनिष्ठ स्वरूपकी अपेक्षा अवान्तर सत्ता अनेक है । महासत्ताकी अपेक्षा सत्ता सर्वपदार्थस्थित है इसका स्पष्टीकरण हम पहले कर आये हैं । इस प्रकार सत्ता सर्वपदार्थस्थित होकर भी वह एक पदार्थस्थित भी है, क्योंकि प्रतिनियत पदार्थस्थित सत्ताओंके द्वारा ही पदार्थोंका प्रतिनियम होता है, इसलिये सर्व-पदार्थस्थित सत्ताका एक पदार्थस्थित सत्ता प्रतिपक्ष है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आगममें सादृश्य सामान्यको ध्यानमें रखकर ही महासत्ता स्वीकार की गई है, स्वरूपसत्ता तो वस्तुभूत ही है । विश्वरूप सत्ता की प्रतिपक्ष एकरूप सत्ता है, क्योंकि प्रतिनियत एकरूप सत्ताओंके द्वारा ही वस्तुओंका प्रतिनियत एकरूपपना दृष्टिगोचर होता है । इसलिए सविश्वरूप सत्ताका प्रतिनियत एकरूप सत्ता प्रतिपक्ष है । अनन्त पर्यायस्वरूप सत्ताका प्रतिनियत एक पर्यायस्वरूप सत्ता प्रतिपक्ष है, क्योकि प्रत्येक पर्यायके प्रति नियत अनन्त सत्ताओंके द्वारा ही अनन्तपर्यायस्वरूप वह (सत्ता) परिलक्षित होती है, इसलिये अनन्तपर्यायस्वरूप सत्ताका एकपर्यायस्वरूप सत्ता प्रतिपक्ष है । इस प्रकार जैन दर्शनमें स्वरूपसत्ताको अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके आत्मभूत स्वतन्त्र स्वरूपको किस प्रकारसे स्वीकार किया गया है और महासत्ताको किस प्रकार कल्पित कर उसकी स्थापना की गई है और यही कारण है कि आगममें द्रव्यका लक्षण सत् करके उसे उत्पाद व्यय - श्रीव्यस्वरूप स्वीकार किया गया है ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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