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________________ विषय प्रवेश उसका परम ( सम्यक् ) पुरुषार्थ है, इसलिए व्यवहारका लोप हो जायगा इस भ्रान्तिवश परमार्थको भूलकर व्यवहारको ही परमार्थरूप समझनेकी चेष्टा करना उचित नहीं है। ५. जीवकी संसार और मुक्त अवस्था है और वह वास्तविक है इसमें सन्देह नही। पर इस आधारसे कर्म और आत्माके अन्योन्याबगाहरूप सम्बन्धको परमार्थभूत मानना उचित नहीं है। जीवका संसार उसीकी पर्यायमें है और मुक्ति भी उसीकी पर्यायमें है । ये वास्तविक हैं और कर्म तथा आत्माका अन्योन्यावगारूप सम्बन्ध' उपचरित है। स्वयं अन्योन्यावगाहरूप सम्बन्ध यह शब्द ही जीव और कर्मके पृथक-पृथक होनेका ख्यापन करता है। इसीलिए यथार्थ अर्थका ख्यापन करते हुए शास्त्रकारोंने यह वचन कहा है कि जिस समय आत्मा रागादिवश शुभ भावरूपसे परिणत होता है उस समय वह स्वयं शुभ है, जिस समय अशुभ भावरूपसे परिणत होता है उस समय वह स्वयं अशुभ है और जिस समय स्वाश्रित शुद्ध भावरूपसे परिणत होता है उस समय वह स्वयं शुद्ध है। यह कथन एक ही द्रव्यके आश्रयसे किया गया है, अपनेसे सर्वथा भिन्न द्रव्यके आश्रयसे नहीं, इसलिए परमार्थभूत है और कौके कारण जीव शुभ या अशुभ होता है और कर्मोंका अभाव होनेपर शुद्ध होता है यह कथन परके आश्रयसे किया गया होनेसे अपरमार्थभूत पराश्रित व्यवहारनयका विषय है। क्योंकि जब ये दोनों द्रव्य स्वतन्त्र है और एक द्रव्यके गुण धर्मका दूसरे द्रव्यमें संक्रमण होता नहीं तब एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यका कारणरूप धर्म और दूसरे द्रव्यमें उसका कर्मरूप धर्म कैसे रह सकता है, अर्थात् नही रह सकता" यह कथन थोड़ा सूक्ष्म तो है, परन्तु वस्तुस्थिति यही है। इस विषयको स्पष्ट करनेके लिए हम तत्त्वार्थसूत्रका एक वचन उद्धृत करना चाहेगे । तत्त्वार्थसूत्रके १० वें अध्यायके प्रारम्भमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति कैसे होती है इसका निर्देश करते हुए कहा है मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ॥१०-१॥ १. हरिवंश अ० ५२, एलो० ५८ । २. समय० गा० ७३ बा० ख्या० टी.। ३. प्रवच० गा० ९, शा० त० प्र०टी०। ४. पराश्रितो व्यवहारनयः समय गा० २७२ मा० स्या० टी० । ५. प्रवच. मा. १६ मा००प्र०टी० ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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