SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जेनतत्त्वमीमांसा यहाँ पर्यायाथिकनयसे ऋजुसूत्र आदि और द्रव्यार्थिक नयसे नगमादि नय लिये गये हैं। यह उपचरित कथनकी सर्वांग मीमांसा है। अब इस दृष्टिसे एकमात्र यह प्रश्न यहाँ विचार करनेके लिए शेष रहता है कि शास्त्रोंमें अखण्डस्वरूप एक वस्तुमें भेद करनेको भी भेद उपचार कहा गया है। इस तथ्यकी पुष्टि हम अनगरधर्मामृतका एक प्रमाण उपस्थित कर कर ही आये हैं । नयचक्रके इस वचनसे भी इसकी पुष्टि होती है । यथा जो चिय जीवसहावो णिच्छयदो होइ सव्ववत्थूणं । सो चिय भेदुवयारा जाण फुडं होइ ववहारो॥२३८॥ निश्चयनयसे सब जीवोंका जो जीव-स्वभाव है, भेदोपचार द्वारा वह भी व्यवहार है ऐसा स्पष्ट जानो ॥२३८॥ , सो ऐसा क्यों ? समाधान यह है कि अनन्त धर्मस्वरूप अखण्ड एक वस्तुमें विकल्प द्वारा भेद करनेको भेद-उपचार कहा गया है। इसलिए प्रश्न होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें 'यह ज्ञान है, दर्शन है, सुख है अथवा रूप है, रस है,गन्ध है, स्पर्श है इत्यादि रूपसे जो गुण-पर्यायभेद परिलक्षित होता है वह क्या वास्तविक नही है और यदि वास्तविक नही है तो प्रत्येक द्रव्यको भेदाभेदस्वभाव क्यों माना गया है ? और यदि वास्तविक है तो भेदकथनको उपचरित नही मानना चाहिए। एक ओर तो गुण-पर्याय भेदको वास्तविक कहो और दूसरी ओर उसे उपचरित भी मानो ये दोनो बाते एक साथ नही बन सकतो? समाधान यह है कि प्रत्येक द्रव्य वास्तवमें अनन्त धर्मात्मक एक अखण्ड वस्तु है, परन्तु जिन्हे इसकी खबर नहीं ऐसे जीवोंको उसके वास्तविक स्वरूपको समझानेके लिए अभेद स्वरूप उस वस्तुमें बुद्धिद्वारा धर्मोकी अपेक्षा भेद उपजाकर ऐसा कथन किया जाता है कि जिसमें ज्ञान है, दर्शन है और चारित्र है वह आत्मा है या जिसमें रूप है, रस है, गन्ध है और स्पर्श है वह पुद्गल है आदि । इससे विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्य वास्तवमें अभेदस्वरूप होते हुए भी प्रयोजनविशेष आदिको लक्ष्यमें रखकर ही उसमें भेद कल्पना की जाती है और इसीलिए व्यवहार और निश्चय दोनों नयोंको ध्यानमे रखकर उसे परमागममें भेदाभेदस्वभाव कहा गया है, केवल परमार्थको लक्ष्यमें रखकर IPLNO NA १. समय गा० ७॥ २. समय० गाथा ७, आ० ख्या० टीका ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy