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________________ केवलज्ञामस्वभावमीमांसा .. ३९९ पर्यायाथिकनय है। यह इष्टिमेदसे प्रत्येक द्रव्यको देखनेकी पद्धति है। वस्तुतः प्रत्येक वस्तु अखण्ड एक है और परिणामी-नित्य है, इसलिये अपने इस स्वभाबके कारण वह ध्रुव रहते हुए भी प्रति समय स्वयं उत्पाद-व्ययरूप अवस्थाको प्राप्त होता रहता है । अतएव जीव पदार्थ स्वयं पराश्रित नहीं है। संयोगके कालमें प्रयोजनविशेषसे परावयपनेका व्यवहार किया जाता है। शंका-वह प्रयोजन विशेष क्या है जिससे जीवमें इस प्रकारका व्यवहार किया जाता है ? समाधान--जिस जीवने अज्ञानवश अभी तक अपने पृथक् एकत्वको उपलब्ध नहीं किया और विषय-कषायसे अभिभूत हो रहा है, उसकी, यह पराश्रितता स्वभावसे जायमान नहीं है, किन्तु अज्ञानवश परमें इष्टानिष्ट बुद्धिका फल है, यह वह प्रयोजन है जिसको लक्ष्यमें रखकर संसारी जीवको पराश्रित कहा गया है। शंका-जो जीव परभवसम्बन्धी आयुका बन्ध कर लेता है, उसको नियमसे उस भवको धारण करना पड़ता है यह एक उदाहरण है। ऐसी अवस्थामें ससारी जोवको वस्तुतः पराश्रित मान लेनेमें आपत्ति । नहीं होनी चाहिये ? __समाधान-जीवशास्त्रका ऐसा नियम है कि इस जीवको जो लेश्या परभवसम्बन्धी आयुके बन्धमें निमित्त होती है, मरणके अन्तर्मुहूर्त पहले तज्जातीय लेश्याके होनेपर ही मरणकर वह जीव भवान्तरको प्राप्त करता है। इससे सिद्ध है कि संसारी जीव आयुबन्धके कारण परभवको नहीं प्राप्त होता, किन्तु उसका मुख्य कारण तज्जातीय लेख्या ही है। शंका-ऐसा मानने में क्या लाभ है ? समाधान-यह मान्यता नहीं है, वस्तुस्थिति है। यह जीव स्वयंकृत अपराधके कारण ससारी बना हुआ है और अपने सहज स्वभावको जानकर स्वभावके अनुकूल पुरुषार्थ करनेसे अपराधवृत्तिसे मुक्त होता है, ऐसा स्वीकार करना यही लाभ है और यही मोक्षका उपाय है। शका-केवली जिन छह द्रव्य और उनकी वर्तमान पर्यायोंको जानें । इसमें किसीको विवाद नहीं हैं। किन्तु जो अतीत पर्यायें विनष्ट हो गई हैं, और भविष्यत्पर्याय उत्पन्न नहीं हुई हैं, केवली जिन उनको भी जानते हैं ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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