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________________ ३९६ araraatमांसा हुए अनेक पदार्थ उसमें यथावत् रूपसे युगपत् प्रतिबिम्बित होते हैं। वैसे ही केवलज्ञानमें अलोकसहित तीन लोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ यथावत् रूपसे युगपत् प्रतिभासित होते हैं । इसीलिये स्वामी समन्तभद्रने अन्तिम तीर्थंकर श्रीवर्धमानकी मंगलस्तुति करते हुए उनके ज्ञानको दर्पणको उपमा दी है। इसी तथ्यका समर्थन पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहे आचार्य अमृतचन्द्र इस मंगलसूत्रसे भी होता है तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।। १ ।। जिसमें दर्पणके तलके समान समस्त पदार्थसमूह त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंके साथ युगपत् प्रतिबिम्बित ( प्रतिभासित ) होता है वह उत्कृष्ट केवलज्ञान ज्योति जयवन्त वर्तो ॥ १ ॥ आचार्य अमृतचन्द्र ने केवलज्ञान रूपसे परिणत हुए ज्ञानस्वभावकी महिमा क्या है इसे इस मंगलसूत्र द्वारा पूरी तरहसे स्पष्ट कर दिया है । आशय यह है कि अलोक सहित त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ केवलज्ञानमें ऐसे ही प्रतिभासित होते है जैसे दर्पणके सामने आया हुआ पदार्थ उसमें प्रतिबिम्बित होता है । यद्यपि दर्पण अपने स्थान पर रहता है और प्रतिबिम्बित होनेवाला पदार्थ अपने स्थानपर रहता है। न तो दर्पण पदार्थ में जाता है और न ही पदार्थ दर्पण में आता है, फिर भी इन दोनोमें सहज ही ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है कि पदार्थके दर्पण के सामने आने पर स्वभावसे दर्पणकी स्वच्छता स्वयं प्रतिबिम्बरूप परिणम जाती है । उसी प्रकार केवलज्ञानका स्वभाव सब द्रव्यों और उनकी त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंको जानने देखनेका है । दर्पणके समान यहाँ भी न तो सब पदार्थ केवलज्ञानमें आते हैं और न केवलज्ञान सब पदार्थों में जाता है। फिर भी केवलज्ञान और सब पदार्थोंके मध्य ऐसा सहज ही ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है कि केवलज्ञानके प्रकट होते ही उसी समयसे वह सब पदार्थों और उनकी त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंको सहज ही युगपत् स्वयं जानने-देखने लगता है । उक्त मंगलसूत्रमें आचार्य अमृतचन्द्र ने केवलज्ञानको परमज्योति पदसे अभिहित किया है सो इसका यह आशय है कि जैसे सूर्य लोकमें स्थित समस्त पदार्थो को अपने आलोक द्वारा प्रकाशित करना है वैसे ही केवज्ञान भी चराचर समस्त विश्वको प्रकाशित करना है जानतादेखता है । यहाँ केवलदर्शनसे अभेद करके यह कथन किया है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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