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________________ जेनतत्त्वमीमासा ३७४ १३. स्वात् पवको उपयोगिता इस प्रकार प्रत्येक वस्तु स्वयं अनेकान्तस्वरूप कैसे है और इस रूप उसकी सिद्धि कैसे होती है इसका स्पष्टीकरण करनेके बाद अब जयधवला पु० १ पृ० २८१ के आधारसे स्यात् पदकी उपयोगतापर विशेष प्रकाश डालते हैं । रसकषाय किसे कहते है इसका समाधान करते हुए आचार्य यतिवृषभ कहते हैं कि कषायरसवाले द्रव्य या द्रव्योंको कषाय कहते है । (ज० ध०, पु० १, पृ० २७७ ) इस सूत्र की टीका करते हुए आचार्य वीरसेन कहते हैं कि द्रव्य दो प्रकार के पाये जाते हैं एक कषाय ( कसैले ) रसवाले और दूसरे अकषाय ( अकसैले ) रसवाले । इसलिये उक्त सूत्रका यह अर्थ होता है कि जिस एक या अनेक द्रव्योंका रस कसैला होता है वे स्यात् कषाय कहलाते हैं । इसपर यह शका हुई कि सूत्रमें 'स्यात्' पदका प्रयोग नहीं किया गया है, फिर यहाँ स्यात् पदका प्रयोग क्यों किया गया है। इसका समाधान करते हुए आचार्य वीरसेन कहते हैं कि जिस प्रकार प्रभा दो स्वभाववाली होती है । एक तो वह अन्धकारका ध्वंस करती है और दूसरे वह सभी पदार्थों को प्रकाशित करती है उसी प्रकार प्रत्येक शब्द प्रतिपक्ष अर्थका निराकरणकर इष्टार्थका ही समर्थन करता है । इसलिये विवक्षित अर्थके साथ प्रतिपक्ष अर्थ है इसे द्योतित करनेके लिये यहाँ सूत्रमें 'स्यात्' पदके प्रयोगका अध्याहार किया गया है। इतना स्पष्ट करनेके बाद उक्त तथ्यको ध्यान में रखकर सप्तभंगीकी योजना की गई है । यथा (१) द्रव्य स्यात् कषाय है, (२) स्यात् नोकषाय है। ये प्रथम दो भंग हैं। इनमें प्रयुक्त हुआ 'स्यात्' पद क्रमसे नोकषाय और कषाय तथा कषाय- नोकषायविषयक अर्थ पर्यायोंको द्रव्यमें घटित करता है । (३) स्यात् अवक्तव्य है । यह तीसरा भंग है । यहाँ कषाय और नोकषायविषयक अर्थपर्यायोंकी अपेक्षा द्रव्यको अवक्तव्य कहा गया है । और स्थात् पद द्वारा कषाय- नोकषायविषयक व्यजनपर्यायोंको द्रव्यमें घटित किया गया है । (४) द्रव्य स्यात् कषाय और नोकषाय है । यह चौथा भंग है । यहाँ प्रयुक्त हुआ स्यात् पद द्रव्यमें कषाय और नोकषाय विषयक अर्थपर्यायोंको घटित करता है ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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