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________________ ३६० जैनतस्वमीमांसा है जीव, (६) स्यात् नहीं है और अवक्तव्य है जीव तथा (७) स्यात् है, नहीं है और अवक्तव्य है जीव। प्रश्नके वश होकर एक वस्तुमें अविरोधपूर्वक विधि-प्रतिषेष कल्पनाका नाम सप्तभंगी है। किसी वस्तुको जाननेके लिए जिज्ञासा सात प्रकारकी होती है, इसलिए एक सप्तभंगीमें भंग भी सात ही होते हैं । ये भग पूर्वमें दिये ही हैं। ___ शंका-उक्त सात भंगोंमें यदि 'स्यादस्त्येव जीवः' यह भग सकलादेशी है तो इसी एक भंगसे जीवद्रव्यके सभी धर्मोका संग्रह हो जाता है, इसलिये आगेके सभी भंग निरर्थक हैं ? ___समाधान-गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भङ्ग सार्थक हैं। द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानता और पर्यायार्थिक नयको गौणतामें प्रथम भङ्ग सार्थक है। तथा पर्यायाथिक नयकी मुख्यता और द्रव्याधिकनयकी गोणतामें दूसरा भङ्ग सार्थक है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोगकी है। वैसे प्रमाण सप्तभङ्गीकी अपेक्षा वस्तु तो प्रत्येक भङ्गमें पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्दसे कहा नहीं गया है अर्थात् गम्य हुआ है वह प्रकृतमें अप्रधान है। तृतीय भङ्गमें कहनेकी युगपत् विवक्षा होनेसे दोनों ही अप्रधान हो जाते हैं, क्योंकि दोनोंको एक साथ प्रधानभावसे कहनेवाला कोई शब्द नहीं है । चौथे भङ्गमें क्रमशः उभय धर्म प्रधान होते हैं। इसी सरणिसे आगेके तीन भङ्गोंका विचार कर लेना चाहिये। ८. प्रत्येक भंगमें 'अस्ति' मादि पदोंको सार्थकता _ 'स्यादस्त्येव जीवः' इस वाक्यमें 'जीव'पद विशेष्य है-द्रव्यवाची है और 'अस्ति' पद विशेषण है-गुणवाची है। उनमें परस्पर विशेषण विशेष्यभाव है इसके द्योतनके लिये 'एव' पदका प्रयोग किया गया है। इससे इतर धर्मोकी निवृत्तिका प्रसंग प्राप्त होनेपर उन धर्मोके सद्भाव को द्योतन करनेके लिए उक वाक्यमें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है। यहाँ 'स्यात्' तिङन्तप्रतिरूपक निपात है। प्रकृतमें इसका अर्थ अनेकान्त लिया गया है। शंका-जब कि 'स्यात्' पदसे ही अनेकान्तका घोसन हो जाता है तो फिर 'अस्त्येव जोव' या 'नास्त्येव जोवः' इत्यादि पदोंके प्रयोगकी कोई सार्थकता नहीं रह जाती है ?
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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