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________________ अनेकान्त- स्याद्वादमीमांसा एक कालमें देखिए अनेकान्तका रूप एक वस्तु नित्य ही विधि-निवेषस्वरूप || १ उपोद्घात पिछले प्रकरण में यद्यपि हमने निश्चयनय और व्यवहारनय तथा इनके उत्तर भेदोंका विचार किया । इनका विवेचन करनेके साथ इस बातका भी विचार किया कि मोक्षमार्गमें परम भावग्राही निश्चयनय, क्यों आश्रयणीय है और सभी प्रकारका व्यवहारनय क्यों आश्रयणीय नहीं है । फिर भी प्रकृतमें अनेकान्त और उसके स्वरूपको लक्ष्यमें रखकर इस तत्त्वकी गवेषणा करना प्रयोजनीय है, क्योंकि मोक्षमार्ग में सब प्रकारका व्यवहार दृष्टिमें हेय होनेसे गौण होनेपर उसे आश्रय करने योग्य न माननेके कारण एकान्तका प्रसंग आता है ऐसा व्यवहाराभासियों का मत है । किन्तु उनका ऐसा कहना इसलिये ठीक नहीं है, क्योंकि आगम में ऐसे अनेक बचन उपलब्ध होते हैं जिनके बल पर यह निश्चित होता है कि मोक्षसिद्धिके लिये मोक्षमार्ग में मात्र निश्चयनयका अवलम्बन लेना ही कार्यकारी है । उदाहरणार्थ समयप्राभृत में आचार्य कुन्दकुन्द मोक्षका हेतु एकमात्र परमार्थ ( निश्चयनय) का अबलम्बन लेना ही है इस तथ्य का समर्थन करते हुए कहते हैं मोत्तूण णिच्छयट्ठ वबहारेण विदुला पवट्टेति । परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ बिहिनो ।। १५६ ॥ विद्वज्जन निश्चयनयके विषयको छोड़कर व्यवहारसे प्रवृत्ति करते हैं, परन्तु परमार्थका आश्रय करनेवाले यतियों (ज्ञानियों) का ही कर्मक्षय होता है ॥ १५६ ॥ जो परमार्थस्वरूप मोक्षहेतुके अतिरिक्त व्रत, पूजा, दान, पर दया व्यवहार तप आदि स्वरूप मोक्षहेतु मानते हैं उनका यहाँ आचार्यदेवने विद्वान् पद द्वारा उल्लेख किया है। क्योंकि वे हो आगमकी दुहाई देकर इन व्रत, तप आदिकी खेंच करते हैं । वे यह स्वीकार ही नहीं करना चाहते कि यथा पदवी परमार्थके साथ गौणरूपसे उसका व्यवहार स्वतः होता ही है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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