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________________ निश्चय-व्यवहारमीमांसा ७ किन्तु व्यवहारनयकी तत्त्वविवेचनको पद्धति इससे भिन्न प्रकारको है। यह गुणभेद और पर्यायभेदरूप तो मात्माको स्वीकार करता ही है। साथ हो जो विभाव भाव और संयोगी अवस्था है उनरूप भी आत्माको मानता है। इस नयका बल बाह्य निमित्तों पर अधिक है। इसलिए इस नयकी अपेक्षा यह कार्य इन निमित्तोंसे हुआ यह कहा जाता है। यह कथन इसी नयमें शोभा पाता है कि यदि निमित्त न हों तो कार्य भी नहीं होगा, निश्चयनयमें नहीं । निश्चयनयसे तो यही कहा जायगा कि जब तक निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति नहीं होती तब तक पूर्वके किसी भी भावको व्यवहार रत्नत्रय कहना संगत नहीं है। और जब निश्चय रत्नवयकी प्राप्ति हो जाती है तब उसके पूर्व जो नव तत्त्वीको श्रद्धा और ज्ञान आदि भाव होते हैं उन्हें भी भूत नैगमनयसे व्यवहार रत्नत्रय कहा, जाता है, क्योंकि जब तक निश्चय प्रगट नहीं होता तब तक व्यवहार किसका ? अभव्योंने अनन्सबार द्रव्य मुनिपदको धारण किया पर उनका चित्त रागमें अटका रहनेसे उन्हें इष्टार्थकी प्राप्ति नहीं हुई। अतएव व्यवहार रत्नत्रय कार्यसिद्धिमें वस्तुतः साधक है ऐसी श्रद्धा छोड़कर त्रिकाली द्रव्यस्वभावकी उपासना द्वारा निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है ऐसी श्रद्धा करनी चाहिए। ___ इस जीवको निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होने पर व्यवहार रत्नत्रय होता ही है। उसे प्राप्त करनेके लिए अलगसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता। व्यवहार रत्नत्रय स्वयं धर्म नहीं है। निश्चय रत्नत्रयके सद्भावमें उसमें धर्मका आरोप होता है इतना अवश्य है। उसी प्रकार रूढ़िवश जो जिस कायेका निमित्त कहा जाता है उसके सद्भावमे भी तब तक कार्यकी सिद्धि नहीं होती जब तक जिस कार्यका वह निमित्त कहा जाता है उसके अनुरूप उपादानकी तैयारी न हो। अतएव कार्यसिद्धिमें बाह्य सामग्रीका होना अकिचित्कर है। जो संसारी प्राणी बाह्य सामग्रोको मिलानेके भाव तो करते हैं पर निजात्माकी सम्हाल नही करते वे इष्टार्थकी सिद्धिमें सफल नहीं होते और अनन्त संसारके पात्र बने रहते है। अतएव बाह्य सामग्री कार्यसिद्धिमें साधक हैं ऐसी श्रद्धा छोड़कर अपने त्रिकाली ज्ञायक भावको मुख्यरूपसे लक्ष्य में लेना चाहिए । उसको लक्ष्य में लेने पर बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिकी अनुकूलता रहती हो है। उन बाह्य द्रव्यादिको मिलाना नहीं पड़ता। बाह्य द्रव्यादिक स्वयं कार्यसाधक नहीं है। किन्तु उपादानके कार्यके अनुरूप व्यापार करनेपर जो बाह्य सामग्री उसमें हेतु होती है उसमें निमित्तपनेका व्यवहार किया
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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