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________________ निश्चय व्यवहारमीमांसा ३४५ साधन जुटानेके भाव होते हैं और कदाचित् उसकी अन्य भोजनादि कार्यों में भी रुचि होती है तो भी वह अपने लक्ष्यसे च्युत नहीं होता । यदि वह अपने लक्ष्यसे च्युत होकर अन्य कार्योंको ही उपादेय मानने लगे तो जिस प्रकार लक्ष्यसे च्युत हुआ विद्यार्थी कभी भी विद्यार्जन करनेमें सफल नहीं होता उसी प्रकार मोक्षप्राप्तिकी उपायभूत स्वभावदृष्टिले च्युत हुआ सम्यग्दृष्टि कभी भी मोक्षरूप आत्मकार्यके साधनेसे सफल नहीं होता । तब तो जिस प्रकार विद्यार्जनरूप लक्ष्यसे भ्रष्ट हुआ विद्यार्थी विद्यार्थी नहीं रहता उसी प्रकार मोक्षप्राप्तिकी उपायभूत स्वभावदृष्टिसे भ्रष्ट हुआ जीव सम्यग्दृष्टि ही नहीं रहता । अतएव प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि सम्यग्दृष्टिके व्यवहारनय ज्ञान करनेके लिए यथापदवी प्रयोजनवान् होनेपर भी वह मोक्षकार्यकी सिद्धिमें रंचमात्र भी आश्रयणीय नहीं है । आचार्योंने जहाँ भी व्यवहारदृष्टिको बन्धमार्ग और स्वभावदृष्टिको मोक्षमार्ग कहा है वहाँ वह इसी अभिप्रायसे कहा है । इसका यदि कोई यह अर्थ करे कि इस प्रकार व्यवहार दृष्टिके वन्धमार्ग सिद्ध हो जाने पर न तो सम्यग्दृष्टिके देवपूजा, गुरुपास्ति, दान और उपदेश आदि देनेका भाव ही होना चाहिए और न उसके शुभाचाररूप प्रवृत्ति ही होनो चाहिये सो उसका ऐसा अर्थ करना ठीक नही है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के स्वभावदृष्टि हो जानेपर भी रागरूप प्रवृत्ति होती ही नहीं यह तो कहा नहीं जा सकता। कारण कि जब तक उसके रागांशके सद्भाव में शुभोपयोग होता है तब तक उसके रागरूप प्रवृत्ति भी होती रहती है और जब तक उसके रागरूप प्रवृत्ति होती रहती है तब तक उसके फलस्वरूप देवपूजादि व्यवहार धर्मका उपदेश देनेके भाव भी होते रहते है और उस रूप आचरण करनेके भी भाव होते रहते हैं । फिर भी वह अपनी श्रद्धामे उसे मोक्षमार्ग नहीं मानता, इसलिए उसका स्वामित्व न होनेसे उसका कर्ता नहीं होता । आगममें सम्यग्दृष्टिको अबन्धक कहा है सो वह स्वभावदृष्टिकी अपेक्षा ही कहा है, राजरूप व्यवहारधर्मकी अपेक्षासे नहीं । सम्यग्दृष्टि एक ही कालमें बन्धक भी है और अबन्धक भी है इस विषयको स्वयं आगम में स्पष्ट किया गया है । आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहते हैं येनांशन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१२ ॥ येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रामस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥ २१६ ॥
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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