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________________ ३३८ जेनतत्त्वमीमासा का है-अनुपर्चारत असद्भूतव्यवहारनय और उपचरित असद्भूतव्यवहारनय । अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयका लक्षण करते हुए पश्चाध्यायीमें कहा है अपि वासद्भुतो योऽनुपचरिताल्यो नयः स भवति यथा । क्रोषाधा जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवाः ॥१-५४६।। जो बद्धिमे न आनेवाले (अव्यक्त) क्रोधादिक भाव होते हैं उन्हें जीवके स्वीकार करनेवाला नय अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है ॥१-५४६।। मृर्तक्रोधादिकको जीवके कहना यह असद्भूत व्यवहारनय है यह तो हम पहले ही बतला आये हैं। उसमें भी जो नय अन्य विशेषणसे रहित होकर ही उन्हे जीवका स्वीकार करता है उसमें विशेषण द्वारा उपचारको स्थान नही मिलता है। यतः अबुद्धिपूर्वक क्रोधादिक सूक्ष्म होनेसे उस समयका ज्ञानोपयोग उन्हें नहीं जान सकता. इसलिए इसे अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय कहा गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उक्त कथनको ध्यानमें रखकर उपचरित असद्भतव्यवहार नयका लक्षण पश्चाध्यायीमें इस प्रकार उपलब्ध होता है उपचरितोऽसद्भुतो व्यवहाराख्यो नयः स भवति यथा । क्रोधाद्या. औदयिकाश्चितश्चेद् बुद्धिजा विवक्ष्या. स्युः ॥१-५४९॥ बीजं विभावभावाः स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यतः ॥१-५५०॥ जब जीवके क्रोधादिक औदयिकभाव बुद्धिमें आये हुए विवक्षित होते हैं तब उमरूपमे उन्हे स्वीकार करनेवाला उपचरित असद्भूतव्यवहारनय होता है ॥१-५४९।। इस नयकी प्रवृत्तिमें यह कारण है कि जितने भी विभावभाव होते है वे नियमसे स्व और परहेतुक होते हैं, क्योंकि द्रव्यमे विभावरूपसे परिणमन करनेकी शक्तिविशेषके होनेपर भी वे परनिमित्तके बिना नही होते ॥१-५५०॥ मुलमें बुद्धिजन्य क्रोधादिकको उपचरित असद्धृतव्यवहारनयका उदाहरण बतलाया गया है सो यहाँ समझना चाहिए कि सम्यग्दृष्टिके उपयोगमें ज्ञान और बुद्धिपूर्वक क्रोधादिक ये दोनों अलग-अलग परिलक्षित होते हैं तो भी बुद्धिपूर्वक होनेवाले क्रोधादिकको आत्माका
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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