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________________ ३२८ जेनतत्त्वमीमांसा स्वरूपसिद्धत्वात् । तस्मादनन्यशरणं सदपि ज्ञानं उपचरितं हेतुबशात् तदिह ज्ञानं सदस्यशरणमिव ।। १-५४० ।। यतः हेतुवश स्वगुणका पररूपसे अविरोधपूर्वक उपचार करना उपaft सद्भूत व्यवहारनय है || १-५४०|| जैसे अर्थविकल्परूप ज्ञानप्रमाण है यह प्रमाणका लक्षण है, सो यहाँपर स्व-पर समुदायका नाम अर्थ है और चेतन्यका तदाकार होना इसका नाम विकल्प है ।।१-५४१।। सत्सामान्य निर्विकल्प होता है, इस दृष्टि से यद्यपि यह लक्षण असत् है तथापि ज्ञापक निमित्तके बिना विषय-रहित उसका कथन नहीं किया जा सकता ||१-५४२॥ इसलिये स्वरूपसिद्ध होनेसे अन्यकी अपेक्षा किये विना ही ज्ञान सत्स्वरूप है तथापि हेतुवश वह 'ज्ञान अन्यकी सहायतासे होता है' ऐसा मानकर उपचरित किया जाता है ॥१-५४३ ॥ तात्पर्य यह है कि अखण्ड होनेसे विवक्षित पदार्थका स्वरूपसिद्ध ( असाधारण ) धर्म द्वारा भेद कर तथा विशेषण सहित कर उस द्वारा विवक्षित पदार्थका कथन करना यह उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका उदाहरण है । १९. प्रयोजनके अनुसार नयोंकी प्ररूपणा इस प्रकार विविध आगमोंमें उदाहरण सहित नयोके जो लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं उनका प्रयोजनके अनुसार प्रकृतमे कहापोह कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है Police (१) नयप्ररूपणाका अर्थप्ररूपणाके साथ निकटका सम्बन्ध है, क्योंकि ज्ञानियोंके अर्थके निमित्तसे जो ज्ञान विकल्प होते है उन्हे ही आगममे नय कहा गया है । अन्तर इतना है कि जब वह विकल्प सकलग्राही होता है तब उसे प्रमाणमे गर्भित किया जाता है और जब एकांशग्राही होता है तब उसे नय कहा जाता है। यह ज्ञानविकल्प वस्तु तक पहुँचानेका प्रमुख साधन है । यदि नयविचाको गौण कर दिया जाय तो कभी-कभी युक्त भी अयुक्तकी तरह प्रतिभासित होने लगता है और अयुक्त भी युक्तकी तरह प्रतिभासित होता है, इसलिये नयविवक्षाको समझ कर वस्तुका निर्णय करना यह आगमसम्मत मार्ग है । (२) उसमे भी जितने भी नय और उनके उत्तर भेद आगम में दृष्टिगोचर होते हैं वे सब प्रयोजन के अनुसार ही निर्दिष्ट किये गये हैं । आजकल आगम बाह्य जो एक परिपाटी चल पड़ी है कि कोई भी कल्पित दो युगल ले लिये और उनमेंसे एकको निश्चय कहना और दूसरेको व्यवहार कहना ऐसा नहीं है। जयपुरखानिया तत्त्व चर्चाके समय ही
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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