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________________ ३२६ जैनतत्वमीमांसा पर्यायाथिकनय यह संज्ञा अथवा व्यवहारनय यह संज्ञा एकार्थक है, क्योंकि इसमें समस्त व्यवहार उपचार मात्र है ॥१-५२१॥ व्यवहरण करनेका नाम व्यवहार है यह उसका मात्र शब्दार्थ है, वह परमार्थरूप नहीं है। जैसे कि गुण-गुणी में सत्तारूपसे अभेद होमेपर भेद करना व्यवहारनय है ॥१-५२२।। जिस समय सत्का साधारण या असाधारण गुण विवक्षित होता है उस समय व्यवहारनय ठीक माना गया है ॥१-५२३॥ इसे और भी स्पष्ट करते हुए वहाँ लिखा है इदमत्र निदानं किल गुणवद् द्रव्यं यदुक्तमिह सूत्र । अस्ति गुणोऽस्ति द्रव्य तद्योगादिह लब्धमित्यर्थात् ॥ १-६३४ ।। तदसन्न गुणोऽस्ति यतो न द्रव्य नोभय न तद्योग । केत्रलमद्वैतं तद् भवति गुणो वा तदेव सद्व्य म् ।। १-६३५ ॥ तस्मान्न्यायागत इति व्यवहार स्यान्नयोऽप्यभूतार्थ । केवल मनुभवितारस्तस्य च मिथ्यादृशो हतास्तेऽपि ।। १-६३६ ।। व्यवहारको अभूतार्थ कहनेका कारण यह है कि सूत्रमें द्रव्यको जो गुणवाला कहा है सो उसका तात्पर्य यह है कि गुण है, द्रव्य है और उनके योगसे एक द्रव्य है ॥१-६३४॥ परन्तु यह मानना असत् है, क्योंकि न गुण है, न द्रव्य है, न दोनों हैं और न उनका संयोग ही है, किन्तु सत् केवल अद्वैत है, वह चाहे गुण होओ, सत् होओ और चाहे द्रव्य होओ, है वह अद्वैतरूप ही ।।१-६३५।। ___ इसलिए न्यायसे यह प्राप्त हुआ कि व्यवहारनय नय होकर भी अभूतार्थ है। जो केवल व्यवहारनयको अनुभवते है अर्थात् स्वीकारते हैं वे मिथ्यादृष्टि और पथभ्रष्ट हैं ॥१-६३६।। इस प्रकार यहाँ पर सामान्य और विशेष में भेदका उपचार कर जो वस्तुको विषय करता है वह अभूतार्थ है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। सद्भूत व्यवहारनय इसीकी संज्ञा है । इसके मुख्य भेद दो है-अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय और उपचरित सद्भूत व्यवहारनय । जिस पदार्थका जो धर्म है, यह नय उसे उस पदार्थका कहता है। यह सद्भूत व्यवहारनय है। जैसे यह कहना कि जीवके ज्ञान हैं यह सद्भुत व्यवहारनयका उदाहरण है । यद्यपि विवक्षित धर्मस्वरूप जीव पदार्थ है, इसलिये सद्भूत है। किन्तु जीवके विवक्षित धर्मस्वरूप होनेपर भी उसका जीबसे भेद करके कथन किया गया है, इसलिए ब्यवहार है। इसीलिए ही यह नय सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है। इतनी विशेषता और है कि यदि बाह्य पदार्थको निमित्त आदि कर इस नयके विषयको विशेषण सहित नही किया
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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