SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४ जेनतस्वमिमांसा समाधान-चरणानुयोग बास मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिप्रधान , मागम है। उसमें ध्येयके अनुकूल कहो या मोक्षमार्गके अनुकूल कही मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिकी मुख्यता है और इसीलिये उसकी शुभाचार सज्ञा है। यत. इसमें तदनुकूल रागकी चरितार्थता है और ऐसा नियम है कि यह जीव जब जिस मावरूपसे परिणमता है उस समय सन्मय होता है। प्रवचनसारका सूत्र वचन है जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । ___ सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भाबी ॥ ९ ॥ परिणामस्वभावी होनेसे जीव जब शुभ या अशुभ भावरूपसे परिणमता है तब शुभ या अशुभ होता है और जब शुद्ध भावरूपसे परिणमता है तब शुद्ध होता है ॥॥ यह वस्तुस्थिति है । इसे ध्यानमें रख कर ही चरणानुयोगमे निश्चयनयके दो भेदोंकी अपेक्षा बिषय विवेचन दृष्टिगोचर होता है। किन्तु अध्यात्मवृत्त होनेकी कथन पद्धति इससे सर्वथा भिन्न है। स्वभावभूत आत्माको गोण कर या उससे विमुख होकर अन्य किसी भी पदार्थ में उपयुक्त होना ससारकी परिपाटीको जीवित रखना है इस तथ्यको हृदयगम कर स्वभावभूत आत्माकी प्राप्तिमें साधक अध्यात्म आगम पराश्रितपनेका पूर्ण निषेध करता है। अत उसके अनुसार निश्चयनयमें किसी भी प्रकारका भेद करना स्वीकार नहीं किया गया है। यत ध्येय एक प्रकारका है, अतः उसे स्वीकार करनेवाला निश्चयनय भी एक ही प्रकारका है । कलशकाव्यमें कहा भी है इममेवात्र तात्पर्य हेयो शुद्धनयो न हि । नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद् बन्ध एव हि ॥१०२॥ प्रकृतमें यही तात्पर्य है कि शुद्धनय किसी भी प्रकार हेय नहीं है, क्योंकि समरस होकर उसरूप परिणमनेसे बन्ध नहीं होता और उसके विरुद्ध परिणमनेसे नियममे बन्ध होता है ॥१२२॥ इस प्रकार उक्त कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मुमुक्षु जीव मोक्षकी प्राप्तिमें परम साधक ध्येयके प्रति सतत जागरूक रहता है । विकल्पकी भूमिकामें भी होनेवाली पराश्रित प्रवृत्तिको वह अपना कार्य नहीं अनुभवता । गुणस्थान प्रक्रियामें जो विकल्पको भूमिकाको प्रमादमें परिगणित किया है सो उसका भी यही आशय है। जैसे कोई व्यक्ति शरीरके रुग्ण होनेपर नोरोग होनेमें अत्यन्त साधक सामग्रोके प्रति निरन्तर जागरूक रहता है। वह रोगको हितकारी या उपादेय मान कर उसकी
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy