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________________ निश्चय-व्यवहारमीमांसा '' ३२१ सश्लेषसम्बन्ध होनेसे शरीर मेरा है ऐसा स्वीकार करना अनुपचरित असद्भूत व्यवहार है ॥११॥ . .. देशो मदीय इत्युपचरितसमाहः स एव चेत्सुनाम् । मयचक्रमूलभृतं नयषट्कं प्रवचनपटिष्टः ॥१०७॥ संश्लेषसम्बन्धका अभाव होनेसे 'देश मेरा है' ऐसा आनना उप- . चरित असद्भूत व्यवहार है। जो प्रवचनमें पद हैं उन्होंने नयचक्रके मूलभूत ये छह नय कहे हैं। __ नैगमादिक सात नय यहाँ क्यों नहीं कहे गये इसका समाधान पण्डितप्रवर आशाधरजी इन शब्दोंमें करते हैं कि जो प्रवचनपटु हैं अर्थात् अध्यात्मतन्त्रके रहस्यको जाननेवाले है उन्होंने ये छह नय कहे हैं। इसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए वे कहते हैं कि ये छह नय स्वल्परूपमे अध्यात्म भाषाकी दृष्टिसे कहे गये हैं और आगमभाषाकी दृष्टिसे नैगमादि सात नय हैं। इससे आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें परम साधक अध्यात्मको लक्ष्य में रखकर चरणानुयोगमें क्या प्रतिपादन शैली स्वीकार की गई है इसका स्पष्टीकरण हो जाता है । वस्तुस्थिति यह है कि चरणानुयोग सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक अशुभाचारके निरोधपूर्वक शुभाचाररूप प्रवृत्तिको जो मुख्यतासे स्वीकार करता है वह इसलिये नहीं स्वीकार करता कि वह आत्माका परमार्थस्वरूप धर्म है या उसका परमार्थ साधन है। यह दिखलाना उसका प्रयोजन भी नहीं है। वह तो केवल प्राकपदवीमें सहचर सम्बन्धवश हो स्वीकार किया गया है और इसीलिये आगममें कही उसे साधक कहा गया है और कहीं निमित्त भी कहा गया है। जिसने अध्यात्मके रहस्यको जाना है वही इस तथ्यको समझता है और इसीलिये ही पण्डितप्रवर आधाधरजी ने 'प्रवचनपरिष्टै.' इस पदका 'अध्यात्मतन्त्ररहस्यज्ञे ' यह अर्थ किया है । १६. अध्यात्मवृत होनेका उपाय __यही कारण है कि जो जीवनमें अध्यात्मवृत्त होनेके मार्गका अनुसरण कर रहा है वह यह अच्छी तरहसे जानता है कि मात्माकी सलाख अवस्था प्राप्त करनेके लिये उसमें एकाग्र होनेका आलम्बनमूतबार भी सहज शुद्ध ही होना चाहिये, क्योंकि सहज स्वभावरूप सम्मान शान चारित्ररूप आत्माका हो जाना तभी सम्भव है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयसार परमानसमें यह सूत्रमाथा लिपिबब हुई है--
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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