SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० जैनतत्त्वमीमांसा क्षायोपशमिक भावोंसे मोक्ष होता है तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष इन दोनोंके कारण नहीं है। इससे स्पष्ट है कि क्षयोपशमभाव स्वयं स्वाधित है। सविकल्प निश्चयनयमें जो विकल्प अर्थात् राग है वही पराश्रितभाव है। शंका-यहाँ औदायकभावको बन्ध हेतु कहा है सो क्या मनुष्य गति आदि भी औदयिक होनेसे बन्धके हेतु हैं ? समाधान-यह सामान्य वचन है। विशेष यह है कि दर्शमोहनीय और चारित्रमोहनीयके उदय में जो औदयिक भाव होता है मात्र उसे ही बन्धका हेतु माना गया है । धवला पु० ६ पृ० १२ में इसी तथ्यका समर्थन करते हुए लिखा भी है जीवपरिणामहेहूँ कम्मत्तं पोग्गला परिणमति । ण य णाणपरिणदो पुण जीवो कम्म समासियदि ।। जीवके मिथ्यात्व आदि परिणामोको निमित्त कर पुद्गल कर्मरूपसे परिणत होते है। किन्तु ज्ञानभावसे परिणत हुआ जीव कर्मबन्धको नही प्राप्त होता है। यहाँ जीवपरिणाम पदसे मिथ्यात्व आदि प्रत्यय लिये गये हैं यह इसीसे स्पष्ट है कि कर्मबन्धके कारणोमें ज्ञानभावको ग्रहण नहीं किया गया है। साथ ही इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि औदयिक भावोंमें मात्र मिथ्यात्व आदिका ही ग्रहण हुआ है, मनुष्यगति आदिका नहीं। समयसार परमागममे जो सम्यग्दृष्टिको अबन्धक कहा गया है सो वह ज्ञानधाराकी मुख्यतासे ही कहा गया है। उसके कर्मधारा गौण है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव सविकल्प अवस्थामें भी रागादि भावोंको आत्मरूपसे 'स्व' नही मानता। रागादिभाव शरीरके ज्वर आदिके समान रोग है, जिससे ज्ञानधारारूप परिणत होकर वह मुक्त होनेके उपायमे निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। १२. निश्चयनयका विषय यद्यपि अभी तक हम जो कुछ भी लिख आये हैं उससे निश्चयनयके विषय पर पर्याप्त प्रकाश पड़ जाता है। फिर भी पंचाध्यायीकारकी दृष्टिको सामने रख कर उस पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। वहाँ निश्चयनयके विषयका निर्देश करते हुए लिखा है
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy