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________________ जैनतत्त्वमीमांसा विषय-प्रवेश करि प्रणाम जिनदेवको मोक्षमार्ग-अनुरूप । विविष अर्थ-गमित महा कहिए तस्वस्वरूप ॥१॥ है निमित्त उपचारविधि निश्चय है परमार्य। तजि व्यवहार निश्चय गहि साधी सदा निजायं ॥२॥ . इस लोकमें ऐसा एक भी प्राणी नहीं है, जो दुःखनिवृत्ति और सुखप्राप्तिका इच्छुक न हो । यही कारण है कि बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकारके धर्मतीर्थके प्रवर्तक तीर्थंकर अनादि कालसे निराकुललक्षण सुखप्राप्तिके प्रधान साधनभूत मोक्षमार्गका उपदेश देते आ रहे हैं। मोक्षमार्ग कहो, निराकुललक्षण सुखकी प्राप्तिका मार्ग कहो या आकुलतालक्षण दुःखसे निवृत्त होनेका मार्ग कहो इन सबका एक ही अर्थ है। जिस मार्गका अनुसरण कर यह जीव चतुर्गतिसम्बन्धी दुःखसे निवृत्त होता है वह मोक्षमार्ग है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मोक्षमार्ग यह विधिगर्भ निषेधपरक वचन है । ऐसा नियम है कि जहाँ विरोधी धर्मका निषेध किया जाता है वहाँ उसकी प्रतिपक्षभूत विधि स्वयं फलित हो जाती है, अतएव जो दुःखनिवृत्तिका मार्ग है वही सुखप्राप्तिका मार्ग है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। १. तीर्थंकरोंका उपदेश इस प्रसंगसे विचार यह करना है कि तीर्थंकरोंका जो उपदेश चारों अनुयोगोंमें संकलित है उसे वचन व्यवहारकी दृष्टिसे कितने भागोंमें विभक्त किया जा सकता है ? आगमको साक्षीपूर्वक विविध प्रमाणोंके प्रकाशमें विचार करने पर विदित होता है कि उसे हम मुख्यरूपसे दो भागोंमें विभक्त कर सकते हैं-उपचरित कथन और अनुपचरित कथन । जिस कथन का प्रतिपाद्य अर्थ तो असत्यार्थ है (जो कहा गया है, पदार्थ वैसा नहीं है )। किन्तु उससे परमार्थभूत अर्थकी प्रसिद्धि होती है उसे १. गौण करके। २ समय० मा० २७ ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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