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________________ सम्यक नियतिस्वरूपमीमांसा जाय तो यहां अन्य सब कारणोंको गौण कर कर्मकी मुख्यातासे कपन किया गया है। यह कथन करनेकी शैली है, इसलिये हम इसे एकान्तपरक कथन नहीं मानते, उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये। इसके विप. रीत यदि कोई यह मान कर चलता है कि इस जीवने मात्र कर्मके उपशमसे उपशम सम्यग्दर्शनको प्राप्त किया है, इसमें अन्य कोई कारण नहीं है तो वह अवश्य ही अज्ञानभाजन बन जायगा। इस प्रकार विवेकसे विचार करने पर यह निश्चित होता है कि प्रत्येक कार्य जब सब कारणोंकी समग्रतामें होता है तब उसका नियतिरूप निश्चय उपादान कारण भी स्वीकार करना बाबश्यक हो जाता है और इस प्रकार जैनदर्शनमें कार्य-कारण परम्पराकी अपेक्षा, कारणरूपसे सम्यक नियतिको भो स्थान मिल जाता है। इसे और अधिक व्यापकरूपसे देखा जाय तो मालुम पड़ता है कि ऐसा वस्तुस्वभाव नियत है कि जो भव्य हैं वे ही मोक्षके पात्र होंगे । हए या होते हैं, अभव्य नहीं। यह भी वस्तुका स्वभाव नियत है कि किसी भी द्रव्यका विवक्षित कार्य विवक्षित निश्चय उपादानकी भूमिका पर पहुंचने पर ही होता है, अन्य निश्चय उपादानके होनेपर नही । जैसे जो जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है वह जब अनिवृतिकरणके अन्तिम समयमे निश्चय उपादानकी भूमिकामें पहंचता है तभी उसको वास्तवमें प्राप्त करनेका अधिकारी होता है। उसमें भी उसे तद्योग्य आत्माके सन्मख परुषार्थ करने.. पर ही यह भमिका मिलती है. अन्य बाह्य पदार्थोंको कारण मानकर उनमें उपयोगके भ्रमानेसे नहीं। इससे हमें यह मालूम पड जाता है कि किस कार्यके होनेकी नियत व्यवस्था क्या है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शनने कार्यकारण परम्पराको स्वीकार करके उसके अगरूपमें सम्यक् नियतिको भी स्थान दिया है। इससे इतना अवश्य ही निश्चित होता है कि उसे एकान्तसे निषतिवाद स्वीकार नहीं है। एक नियतिवाद ही क्या उसे कालवाद, पुरुषार्थवाद, स्वभाववाद और ईश्वर (बाह्य कारण) वाद यह कोई भी वाद एकान्तसे स्वीकार नहीं है, क्योंकि वह आत्माके प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें स्वभाव, पुरुषार्थ, काल, बाह्य संयोग और नियति (निश्चय उपादान) इन सबकी यथासंभव निचय-व्यवहारल्प कारणता स्वीकार करता है। इसलिये उसने जहाँ एकान्तसे नियतिवादका निषेध किया है वहां उसने एकान्तसे माने गये इन सब वादोंका भी निषेध किया है। फलस्वरूप यदि कोई - mama Hamarati - १८
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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