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________________ सम्यक नियतिस्वरूपमीमांसा उपादान निज गुण कहा 'नियति' स्वलक्षणद्रव्य । ऐसी अक्षा जो गह जानो उसको भव्य ॥ १. उपोबात अब प्रश्न यह है कि आत्मा परमार्थसे परका अकर्ता होकर ज्ञातादृष्टा बना रहे इस तथ्यको फलित करनेके लिये 'क्रमनियमित पर्याय' का सिद्धान्त तो स्वीकार किया पर उसे स्वीकार करनेपर जो नियतिवादका प्रसंग उपस्थित होता है उसका परिहार केसे होगा। यदि कहा जाय कि नियतिवादका प्रसंग आता है तो भले ही आओ, मात्र इस भयसे 'क्रमनियमित पर्याय' के सिद्धान्तका त्याग थोड़े ही किया जा सकता है तो यह कहना भी उचित नहीं है. क्योंकि शास्त्रकारोंने नियतिवादको एकान्तमे सम्मिलितकर उसका निषेध ही किया है। इसका समर्थन गोम्मटसार कर्मकाण्डके इस वचनसे भी होता है अत्तु जहा जेण जस्ण य णियमेण होदि तदा । तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो दु ।।८८२॥ जो जब जिस रूपसे जिस प्रकार जिसके नियमसे होता है वह उस रूपसे उसके होता ही है इस प्रकार जो वाद है वह नियतिवाद है ।।८८२।। यह एकान्त नियतिवादका अर्थ है । इस प्रकार एकान्त नियतिवादका भव दिखलाकर जो महाशय 'क्रमनियमित पर्याय' के सिद्धान्तको अवहेलना करते है उन्हे यह स्मरण रखना चाहिए कि जिन एकान्त मनवालोने सर्वथा नियतिवादको स्वीकार किया है वे न तो परमार्थस्वरूप कार्य-कारण परम्पराको ही स्वीकार करते हैं और न तदनुषंगी उपचरित कार्य-कारण परम्पराको ही स्वीकार करते हैं। और यह हमारा कोरा कथन नहीं है, किन्तु बर्तमानकालमें इस विषयका प्रतिपादन करनेवाला जो भी साहित्य उपलब्ध होता है उससे इसका समर्थन होता है। तीर्थकर भगवान महावीरके कालमें भी ऐसे अनेक मत प्रचलित थे जो ऐसे अनेक एकान्त मतोंका समर्थन करते थे। ऐसे कई मतोंका
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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