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________________ क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा २५१ उससे विदित होता है कि ज्ञानीके बाह्य परिकररूपमें ये भले ही होते हों पर वह उन्हें मोक्षका अन्तरंग हेतु न मानकर एकमात्र ज्ञानरूप होने को ही मोक्षका अन्तरंग हेतु मानता है। यह इसीसे सिद्ध है कि ज्ञानीके ग्यारहवें आदि गुणस्थानोंमें व्रत, नियम आदिका अभाव होनेपर भी वह मोक्षका अधिकारी हो जाता है। इतना ही क्यों यदि यह कहा जाय तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि राग और ज्ञानमें भेदविज्ञान होनेपर ही वह ज्ञानी हुआ है, इसलिये परमार्थसे उसके व्रत, नियमादिका असद्भाव होनेपर भी वह एकमात्र ज्ञानभावसे मोक्षस्वरूप ही है। प्रकृतमें इसी तथ्यको स्पष्ट करनेके लिये व्रत, नियमादिके पूर्व बाह्य विशेषण लगाया है और ज्ञानीके उनका असद्भाव कहा है। __शंका-एक बार तो ज्ञानीके बाह्यरूपमे आप व्रत, नियमादिको स्वीकार करते हो और दूसरी बार वही उनका निषेध भी करते हो सो क्यों ? समाधान-नयविभागसे ये दोनो कथन बन जाते है। पहला कथन असद्भूत व्यवहारनयसे किया गया है और दूसरा कथन परमार्थसे किया गया है, इसलिये कोई बाधा नहीं है। इस प्रकार इस कथनसे यह स्पष्ट हो जानेपर कि चतुर्थ आदि गुणस्थानोंका निश्चय रत्नत्रय मोक्षका परम्परा हेतु है, सहचर सम्बन्ध वश उसके साथ होनेवाले व्यवहार रत्नत्रयको उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे परम्परा मोक्षका कारण कहा है। जैसे निश्चय रत्नत्रय स्वरूपसे मोक्षका साक्षात् या परम्परा कारण है वैसे व्यवहार रत्नत्रय स्वरूपसे मोक्षका न तो साक्षात् कारण है और न ही परम्परा कारण है इतना स्पष्ट है, क्योकि वह द्रव्यान्तर स्वभाववाला होनेसे मोक्ष अर्थात् अपने एकत्वकी प्राप्तिका हेतु कैसे हो सकता है, अर्थात् नही हो सकता। अब रही व्यवहार रत्नत्रयके धर्म होने और न होनेकी बात सो जब वह वस्तुके स्वभावरूप ही नही तब वह निश्चय रत्नत्रयके समान धर्म कैसे हो सकता है। यदि उसे उपचरित असद्भूत व्यवहार नयसे मोक्षका परम्परा कारण भी कहा जाय तो भी वह निश्चय रत्नत्रयके समान किसी प्रकार भी धर्म नहीं हो सकता। परमार्थसे धर्म दो प्रकारका हो, एक निश्चय धर्म और दूसरा व्यवहार धर्म ऐसा तो है नहीं। वास्तवमें स्वभावधर्म तो एक हो प्रकारका है, दो प्रकारका नहीं और उसीको
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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