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________________ 'क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा यह है कि जो अपने स्वतःसिद्ध, अनादि-अनन्त, निरन्तर उद्योतरूप और विशद् ज्योति शायकस्वरूप मात्माके सन्मुख हो उसमें उपयुक्त होता है। उसे निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयको प्राप्ति एक साथ होती है। इसलिये निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्तिका वास्तविक उपाय अपने पिकाली शायकस्वरूप आत्माम उपयुक्त होना ही है. व्यवहार रत्नत्रय नहीं यह सिद्ध होता है। शंका-तो फिर आगममे व्यवहार रत्नत्रयको निश्चय रत्नत्रयका साधक क्यों कहा गया है ? समाधान-व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रयको उत्पन्न करता है, । इसलिये साधक नहीं कहा गया है। किन्तु व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रयके सद्भावका सूचक हानेसे उसे (व्यवहार रत्नत्रयको) निश्चय-1 रत्नत्रयका साधक (सिद्धि-अस्तित्वका हेतु) कहा गया है। शका-आगममें व्यवहार रत्नत्रयको जो परम्परामोक्षका हेतु कहा गया है सो क्यो? समाधान-व्यवहारनयके मूल भेद दो हैं-सद्भूत व्यवहारनय और असद्भुत व्यवहारनय । सद्भूत व्यवहारनयसे अव्यवहित पूर्व समयवर्ती रत्नत्रयसे भिन्न चौथे आदि गुणस्थानवर्ती निश्चय रत्नत्रयको परम्परा मोक्षका कारण कहा है, क्योंकि इसमे मोक्षको हेतुता सद्भूत होकर भी वह अपने-अपने अव्यवहित उत्तर समयमें मोक्षको उत्पन्न करनेमें हेतु नहीं होता, इसलिये इसे परम्परा मोक्षका हेतु कहा है। यह कथन अर्थगर्भ है, इसलिये परमार्थस्वरूप है। ___ अब रही असद्भूत व्यवहारनयसे परम्परा मोक्षकारणकी बात सो नियम यह है कि चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर दसवें गुणस्थान तक जहाँ जितने अंशमें निश्चय रत्नत्रय सम्बन्धी विशुद्धि होती है वहाँ उतने अंशमें व्यवहार रत्नत्रय सम्बन्धी अविशुद्धि (प्रशस्त राग) अवश्य होती है। ऐसा ही ज्ञानधारा और कर्मधाराका एक साथ एक आत्मामें रहना मागम स्वीकार करता है। इस प्रकार इन दोनोंके सहचर सम्बन्ध को देखकर इनमें निमित-नैमित्तिक सम्बन्धको आगम स्वीकार करता है। देखो, यह बात तो हम पहले ही बतला आये हैं कि इन दोनोंकी) उत्पत्ति एक साथ होती है, इसलिये इनमेंसे कोई किसीकी उत्पत्तिका |
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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