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________________ क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा और साथ ही यह भी लिख दें कि आचार्योंने जो कुछ लिखा है वह उनकी मान्यता है। हमें वह स्वीकार नहीं है | आगमके नाम पर ऐसी उपहासास्पद बिडम्बना क्यों करते हैं। ___ वस्तुतः उन्हें समझना चाहिये कि मोक्ष पर्यायकी द्रव्य योग्यता तो निगोदिया जीवमें भी पाई जाती है, पर वह उसी पर्यायसे मोक्षका पात्र नहीं बनता, इसीलिये आचार्योने जिस पर्यायके बाद जो कार्य नियमसे होता है उस पर्यायमें अव्यवहित उत्तर पर्यायकी कारणता स्वीकार की है। प्रध्वंसाभावके लक्षणमें ही यह स्वीकार किया गया है कि एक पर्यायका व्यय (प्रध्वंस ) ही उससे अगली पर्यायकी उत्पत्ति है। जैसे घटका विनाश हो कपाल हैं। क्या यह सम्भव है कि घटका विनाश न हो और कपालोंकी उत्पत्ति हो जाय और क्या यह सम्भव है कि घटका विनाश हो और कपालोंकी उत्पत्ति न हो। यदि नहीं तो अन्वय-व्यत्तिरेकके आधार पर कार्य-कारणभावका अललाप करना कहांकी बुद्धिमानी है। शंका-इसी अन्वय-व्यतिरेकके आधार पर ही हम बाह्य सामग्रीमें कारणता स्वीकार करते हैं ? समाधान इसे अस्वीकार तो हम करते नही। हमारा कहना तो इतना ही है कि बाह्य सामग्रीमे वास्तविक कारणता नही है। केवल अन्यवय-व्यतिरेकके आधार पर ही उसमें कारणता कल्पित की जाती है। जब कि अव्यवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्यमें वास्तविक कारणता पाई जाती है। देखो, परीक्षामुखमें क्रमभावी अविनाभावको बतलाते समय पूर्वोतर दो पर्यायोंकी अपेक्षा ही कार्यकारणभाव स्वीकार किया गया है। वहाँ सहभावी बाह्य व्याप्तिकी अपेक्षा कार्य-कारणभावकी कोई चर्चा ही नहीं की गई है। सो क्यों ? उसका एकमात्र कारण यही है कि बाह्य सामग्री में वास्तविकरूपसे कारणता नही पाई जाती। (११) उनका जो यह कहना है कि यद्यपि निश्चय रत्नत्रयसे ही जीवको मोक्षको प्राप्ति होती है, परन्तु उसे निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति व्यवहार रत्नत्रयके आधार पर ही होती है, इसलिये व्यवहार रत्नत्रय मोक्षका परम्परा कारण है आदि । सो उनका यह कहना भी इसलिये ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे मोक्षपर्याय जीवकी स्वभाव पर्याय है उसी प्रकार निश्चय रत्नत्रय भी जीवकी स्वभाव पर्याय है। फिर क्या कारण है कि
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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