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________________ क्रम नियमितपणमीमांसा २४५ asant fea कर पर्यायोंके प्रतिनियत क्रमका निषेध करते हैं । उनका यह कथन कैसे अगम विरुद्ध है यह इसीसे स्पष्ट है कि कर्म और आत्मामें एक तो संश्लेष सम्बन्ध न होकर अन्योन्यावगाहसम्बन्ध होता है । दूसरे जब तक सम्बन्ध रहता है तब तक ये एक-दूसरेका मात्र अनुसरण करते हैं। यदि कर्मको यथार्थ प्रेरक मान लिया जाय तो यह जीव कभी भी मुक्तिका पात्र नहीं हो सकता । एक बात और है कि कर्मका उदयउदीरणा होनाधिक होनेपर भी जीव अपने निश्चय उपादानके अनुसार ही कार्य करता है । इस तथ्यका स्पष्टीकरण हम पहले ही कर आये हैं । (६) जो महाशय यह कहते हैं कि विवक्षित कार्यरूपसे परिणमनकी उपादान योग्यताके रहनेपर भी उसके उसरूपसे परिणमन करानेमें समर्थं जब बाह्य सामग्री मिलती है तभी वह कार्य होता है तो उनका यह कथन स्वाध्याय- प्रेमियोंके चित्तमें मात्र भ्रमको ही उत्पन्न करता है, क्योंकि उन्होंने उपादान योग्यता कहकर अपने पक्षको प्रस्तुत किया है । यह नही स्पष्ट किया कि इस उपादान योग्यतासे उन्हे कौन-सी योग्यता स्वीकार है - द्रव्यरूप या पर्यायरूप या उभयरूप । मात्र द्रव्य योग्यता कार्यजनक आगम भी स्वीकार नहीं करता । रही पर्याय योग्यता सो वह अकेली होती नही । यदि उभयरूप योग्यता ली जाती है तो उसके होनेपर तदनुरूप कार्यके होनेका नियम है । इसीलिये निश्चय उपादान... लक्षणमे द्रव्य पर्याय दोनों प्रकारकी योग्यता ली गई है। और जब कार्य होता है तब उसके अनुकूल बाह्य सामग्री नियमसे रहती है यह भी नियम अन्तर्व्याप्ति और बाह्यव्याप्तिके इस योगको आगम भी स्वीकार करता है । देखो समयसार गाथा ८४ की टीका । (७) वे महाशय जो यह कहते हैं कि मिट्टीके समान कुम्भकार व्यक्तिमें भी कुम्भ निर्माणका कर्तृत्व विद्यमान है इत्यादि सो उनका यह कहना भी युक्तियुक्त नही है, क्योंकि जो परिणमता है वह कर्ता कहलाता है । इस नियमके अनुसार कुम्भकार जब घटरूप परिणमन ही नही करता तब उसमे कुम्भका कर्तृत्व कैसे बन सकता है, अर्थात् नहीं बन सकता । अब रही मिट्टी सो सामान्य मिट्टी में भी कुम्भकी सामान्य योग्यता ही होती है। कुम्भका द्रव्य-पर्याय कर्तृत्व तो उसी मिट्टीमें बनता है जो मिट्टी कुशूल पर्यायसे युक्त होकर स्वयं अन्तर्घटभवन के सन्मुख होती है । वैसे कुशूल व्यञ्जनपर्याय होनेसे प्रति समय सदृश परिणाम द्वारा अनेक क्षणवर्ती भी हो सकती है, इसलिये घटपर्यायके सम्मुख हुई कुशूल पर्याय युक्त मिट्टी ही घटको जन्म देती है ऐसा यहाँ समझना चाहिये ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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