SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा २२९ निकालकर क्रमसे संजी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त होते हैं उनके अब उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम होना सम्भव ही नहीं और उनके बिना मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभामबन्ध भी होना सम्भव नहीं तब उनके मिथ्यात्वको उत्कृष्ट अनुभाग उदोरणा कहाँसे होगी? और इसके अभावमें संशो पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला भी कैसे हो सकेगा २ अर्थात् नहीं हो सकेगा यह एक प्रश्न है। इसका समाधान जयधवलामें यह कहकर किया है कि चाहे उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म वाला जीव हो या चाहे तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला जीव हो। दोनोंके उत्कृष्ट सक्लेश परिणाम हो जायगा। पूरा शंका समाधान इस प्रकार है __ थावरकापादो आगंतूण तसकाइएसुप्पणस्साणुभागसंतकम्ममणुक्कस्सं होइ, विट्ठाणियत्तादो । पुणो एदं सतकम्ममुदीरेमाणो पंचिदियो चउट्ठाणमणुक्कस्साणुभागं बंधदि । संपहि एवं विहाणेण बद्धचउट्ठाणियाणुक्स्साणुभागसंतकम्मेण सो चेब उक्कस्साणुभागबंधपाओग्गो बि होइ, सव्वुक्कस्ससंकिलेसपरिणामेण परिणदस्स तस्स तदविरोहादो। जड पुण उक्कस्साणुभागसंतकम्मेण विणा उक्कस्माणुभागुदयो उदीरणा वा ण होदि ति णियमो तो सस्स उस्कस्सोदयाभावेण तदविणाभाविउक्कस्ससंकिलेसाभावादो । उक्कस्साणुभागबंधो सम्वकालं ण होज्ज ? ण च एव, तहासते उक्कस्माणुभागुप्पत्तीए तत्थाभावपसगादो । तदो उक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स तप्पाओग्गाणुक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स वा सण्णिमिच्छास्सि सव्वसंकिलिट्ठस्स उक्कस्साणुभागुदीरणासामित्तं होदि ति णिच्छेयव्वं । जयधवला पु० ११ पृ० ४८ । स्थावरकायिकोंमेंसे आकर सक्रायिकोंमें उत्पन्न हुए जीवके अनुभाग सत्कर्म अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि वह द्विस्थानीय है। पूनः इस सत्कर्मकी उदीरणा करनेवाला पञ्चेन्द्रिय जीब चतुःस्थानीय अनुभाग सत्कर्मका बन्ध करता है। अब इस विधिसे बन्धको प्राप्त हुए चतु:स्थानीय अनुभाग सत्कर्मके द्वारा वही जीव उत्कृष्ट बन्धके योग्य भी होता है, क्योंकि सर्वोत्कृष्ट संक्लेशसे परिणत हुए उस जीवके उसके होने में कोई विरोध नहीं है। किन्तु यदि उत्कृष्ट सत्कर्मके बिना उत्कृष्ट अनुभागका उदय या उदीरणा नही होती है ऐसा नियम हो तो उसके उत्कृष्ट उदयका अभाव होनेसे उसका अविनाभावी उत्कष्ट संक्लेशका अभाव हो जायगा और ऐसा होनेपर उत्कृष्ट अनुभागवन्ध सर्वकाल नहीं होगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होनेपर वहाँ पर उत्कृष्ट अनुभागकी उत्पतिका अभाव
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy