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________________ २४ जेनतस्त्वमीमांसा अतः इन तकों के समय में कार्य तो उत्पन्न करना चाहते थे वह कार्य नहीं हुआ, इसलिए हम ऐसा कहते है । तो विचार कीजिये कि वह सामग्री विवक्षित द्रव्यके आगे होनेवाले कार्यकी बाधक ठहरो कि आपके संकल्प की ? विचार करने पर विदित होता है कि वस्तुत. वह विवक्षित द्रव्यके कार्यकी बाधक तो त्रिकालमें नहीं है । हाँ आप आगे उस द्रव्यका जैसा परिणमन चाहते थे बेसा नही हुआ, इसलिए आप उसे कार्यकी बाधक कहते हो सो भाई । यही तो भ्रम है । इसी भ्रमको दूर करना है। वस्तुत उस समय द्रव्यका परिणमन ही 'आपके संकल्पानुसार न होकर अपने उपादान के अनुसार होनेवाला था, इसलिए जिसे आप अपने मनसे बाधक सामग्री कहते हो वह उस समय उस प्रकारके परिणमन में निमित्त हो गई । 'समाधानस्वरूप यही समझना चाहिए कि प्रत्येक अपने उपादानके अनुसार ही होता है और उस समय जो बाह्य सामग्री उपस्थित होती है वही उसमें निमित्त हो जाती है । निमित्त स्वयं अन्य द्रव्यके किसी कार्य को करता हो ऐसा नही है । उदाहरणार्थं दीपक के प्रकाश में एक मनुष्य पढ रहा है । अब विचार कीजिए कि वह मनुष्य स्वय पढ रहा है या दीपक पढा रहा है ? दीपक पढ़ा रहा है यह तो कहा नही जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर दीपकके रहने तक उसका पढ़ना नही रुकना चाहिए । किन्तु हम देखते हैं कि दीपक के सद्भावमे भी कभी वह पढ़ता है और कभी अन्य कार्य भी करने लगता है। इससे मालूम पड़ता है कि दीपक तो निमित्तमात्र है, वस्तुतः वह स्वयं पढ़ता है, दीपक बलात् उसे पढ़ाता नही । इस प्रकार जो नियम दीपकके लिए है वही नियम सब निमित्तोंके लिए जान लेना चाहिए। निमित्त चाहे क्रियावान् द्रव्य हो और चाहे निष्क्रिय द्रव्य हो, कार्य होगा अपने उपादानके अनुसार ही । अत निमित्तका विकल्प छोड़कर प्रत्येक संसारी जीवको अपने उपादानकी ही सम्हाल करनी चाहिए। जो ससारी जीव अपने उपादानकी सम्हाल करता है वह अपने मोक्षरूप इष्ट प्रयोजनकी सिद्धिमे सफल होता है और जो संसारी जीव उपादानकी उपेक्षा कर अपने अज्ञान के कारण निमित्तोंके मिलाने के विकल्प करता रहता है वह अज्ञानी हुआ ससारका पात्र बना रहता है । कार्योत्पत्ति में निमित्तोंका स्थान है इसका निषेध नही और इसलिए बाह्य दृष्टिसे विवेचन करते समय शास्त्रोंमें निमित्तोंके अनुसार कार्य होता है यह भी कहा गया है। परन्तु यह सब कथन उपचरित ही जानना
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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