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________________ २२६ .जैनतस्वमीमांसा साधन आदि होनेकी वास्तविक योग्यता दूसरे द्रव्यमें न होनेसे एक कर्ताका निषेध करनेसे वास्तवमें सभी कारकोका निषेध हो जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य अमितगति स्वरचित द्वात्रिंशतिकामें कहते है न सस्तरो मद्र ममाधिसाधन न च लोकपूजा न च सघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिश विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम् ।।२३।। हे भद्र । सस्तर समाधिका साधन नहीं है, लोकपूजा और संघमेलन भी समाधिका साधन नहीं है। मैं सब प्रकारको बाह्य वासनाको छोडकर जैसे भी बसे वैसे अध्यात्मरत होता हूँ॥२३॥ यह तथ्य है। इस द्वारा जिन्हे हम समाधिके लिये अनुकूल साधन मानते है यहाँ न केवल उनका ही निषेध किया गया है, किन्तु तद्विषयक सभी प्रकारकी वासनासे मुक्त होकर एक अपने आत्माको ही लक्ष्यमें लेनेका दृढ प्रेरणा की गई है। साथ ही इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि अन्यके द्वारा तद्भिन्न अन्यका कार्य किया जा सकता है ऐसा मानना कोरी अज्ञानमूलक वासना है । ६ कतिपय शास्त्रीय उदाहरण (१) शास्त्रोंमे अभव्य मुनियों के बहुत उदाहरण आते हैं। वे जीवन भर चरणानुयोगके अनुसार कठोर सयमका पालन करते हैं, फिर भी वे भावस यमके पात्र क्यो नहीं होते। बाह्य दृष्टिमे उनमे किस बातकी कमी है ? बाह्यमे घर आदि सकल परिग्रहका त्याग किया है। सिंह आदि कर जीवोंसे व्याप्त वनमें एकाकी विचरते है। इतना सब है तो भी वे भावसंयमरूप परिणामके अधिकारी नही होते? इसके कारणका अनुसन्धान करनेपर यही कहना पडता है कि उनमें भावसंयमको उत्पन्न करने की कार्यक्षम उपादान योग्यता ही नहीं है, इसलिये वे बाह्य तपश्चरण आदि व्यवहार साधनमें अनुरागी होकर भावसंयमके अनुकूल प्रयत्न भले ही करते रहे, पर उस जातिको योग्यताके अभावमे मोक्षप्राप्तिके अनुरूप सम्यक् पुरुषार्थके अभावमें न तो भावसंयमके पात्र होते है और न मोक्षके ही अधिकारी हो पाते है। नियम यह है कि जहाँ रागकी ओर अणुमात्र भी झुकाव है वहाँ आत्माको प्राप्ति नही और जहाँ आत्माकी प्राप्ति है वहाँ रागानुभूति नहीं । का होना और बात है, पर स्वपनेसे रागकी अनुभूति होना और बात है। ज्ञानीके विकल्प
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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