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________________ २०८ जेनतस्वमीमांसा कि धर्मश्रवणके काल में ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती। यदि गुरुके सानिध्यमें ही उपदेशपूर्वक वह सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है तो उसका अधिगमज सम्यग्दर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है और यदि कालान्तरमें सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है तो उसको निसर्गज सम्यकदर्शन कहेंगे । शंका-श्री जयधवला जीमें बतलाया है कि जिनबिम्बदर्शनसे निधत्ति और निकाचित कर्म अनिधत्ति और अनिकाचितरूप हो जाते हैं। इससे मालूम पड़ता है कि जिनबिम्बके दर्शनमें लगे हुए उपयोगके कालमें ही सम्यग्दर्शन हो जाता है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि उपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके जो बाह्य निमित्त बतलाये हैं उनमें एक जिनबिम्ब दर्शन भी है । असद्भूत व्यवहारनयसे प्रकृतमें उसकी पुष्टि की गई है। करणानुयोगका नियम यह है कि जब यह जीव उपशम सम्यग्दर्शन तथा उपशम या क्षायिक चारित्रके सम्मुख होकर अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयको प्राप्त करता है तब अपने-अपने योग्य निधत्ति और निकाचितरूप कर्म स्वयं ही अनिधत्ति और अनिकाचितरूप हो जाते है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए (प्रवचनसारमें कहा भी है जो जाणदि अरहते दबत्त-गुणत्त-पज्जयत्तेहि । सो जाणदि अप्पाण मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।८।। जो अरहंतको द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपनेसे जानता है वह आत्माको जानता है, उसका मोह अवश्य लयको प्राप्त होता है ॥८॥ इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते है-जो वास्तवमें द्रव्य-गुण-पर्यायरूपसे अरहंतको जानता है वह निश्चयसे आत्माको जानता है, क्योंकि निश्चयसे उन दोनोंके स्वरूपमे भेद नहीं है। कारण कि अरहतका स्वरूप अन्तिम पाकको प्राप्त होनेसे सोनेके समान परिस्पष्ट है, इसलिये उसका ज्ञान होनेपर पूरी तरहसे आत्माका ज्ञान होता है। वहाँ अन्वयस्वरूप द्रव्य है, अन्वयका विशेषण गुण है तथा अन्वयके व्यतिरेक (भेद) पर्याय हैं । वहाँ सर्व तरहसे विशुद्ध भगवान् अरहतके ख्यालमे लेनेपर द्रव्य, गुण और पर्याय इन तीन स्वरूपवाले मात्माको अपने मनसे एक समयमे जान लेता है कि जो अन्वयरूप चेतन है वह द्रव्य है, जो अन्वयके आश्रित चैतन्यरूप विशेषण है वह गुण है और जो एक समय तक रहनेवाले परस्पर व्यावृत्त होकर स्थित अन्वयके व्यतिरेक हैं वे पर्यायें है, जो कि चिद्विवर्तरूप ग्रंथियाँ हैं। इस प्रकार जो
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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