SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ जैनतत्त्वमीमांसा भय हो भी तो सबसे बड़ा भय आगमका होना चाहिए। विद्वानोंका प्रमुख कार्य जिनागमकी सेवा है और यह तभी सम्भव है जब वे समाजके भयसे मुक्त होकर सिद्धान्तके रहस्यको उसके सामने रख सकें। कार्य बडा है। इस कालमें इसका उनके ऊपर उत्तरदायित्व है, इसलिए उन्हे यह कार्य सब प्रकारको मोह-ममताको छोड़कर करना ही चाहिए। समाजका सधारण करना उनका मुख्य कार्य नहीं है। यदि वे दोनों प्रकारके कार्योंका यथास्थान निर्वाह कर सके तो उत्तम है। पर समाजके संधारणके लिए आगमको गौण करना उत्तम नही है। हमें भरोसा है कि विद्वान् मेरे इस निवेदनको अपने हृदयमें स्थान देंगे और ऐसा मार्ग स्वीकार करेंगे जिससे उनके सप्रयत्नस्वरूप आगमका रहस्य और विशदताके साथ प्रकाशमे आवें । संसारी प्राणीके सामने मुख्य प्रश्न दो है-प्रथम तो यह कि वह वर्तमानमे परतन्त्र क्यों हो रहा है ? क्या वह अपनी कमजोरीके कारण परतन्त्र हो रहा है या कर्मोकी बलवत्ताके कारण परतन्त्र हो रहा है। दूसरा प्रश्न है कि वह इस परतन्त्रतासे छुटकारा पाकर स्वतन्त्र कैसे होगा। अन्य निमित्त कारण उसे स्वतन्त्र करेंगे या वह निमित्तोंकी उपेक्षा कर स्वयं पुरुषार्थ द्वारा स्वतन्त्र होगा। ये दो प्रश्न हैं जिनका जैनदर्शनके सन्दर्भमे उसे उत्तर प्राप्त करना है ) यह तो प्रत्येक विचारक जानता है कि जैनदर्शनमे जितने भी जडचेतन द्रव्य स्वीकार किये गये है वे सब अपने-अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्वको लिए हए प्रतिष्ठित हैं।एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको अपना कुछ भी अंश प्रदान करता हो या जिस द्रव्यका जो व्यक्तित्व अनादिकालसे प्रतिष्ठित है उसमें कुछ भी न्यूनाधिकता करता हो ऐसा नहीं है। ये दो जैनदर्शनके अकाट्य नियम हैं । अत. इनके सन्दर्भमे प्रत्येक द्रव्यके उत्पाद-व्ययरूप कार्यके सम्बन्धमे विचार करने पर विदित होता है कि जिस द्रव्यमें जो भी स्वभाव या विभावरूप कार्य होता है वह अपने परिणमन स्वभावके कारण उपादानशक्तिके बलसे ही होता है। अन्य कोई द्रव्य उसमें उसे उत्पन्न करता हो और तब उसका वह स्वभाव-विभावरूप कार्य होता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि अन्य द्रव्यसे उसकी उत्पत्ति मानने पर न तो द्रव्यके परिणमन स्वभावको ही मिद्धि होती है और न ही 'एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको अपना कुछ भी अंश प्रदान नही करता' इस तथ्यका ही समर्थन किया जा सकता है । अतएव जहाँ तक प्रत्येक द्रव्यके परिणमन स्वभावका प्रश्न है और जहाँ तक उसके स्वतन्त्र व्यक्तित्वका प्रश्न है वहाँ तक
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy